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________________ (१९) यथार्थ भक्तिमार्ग दादाश्री : हाँ। नरसिंह मेहता भी कहते थे कि, 'हे भगवान, मुझे छुड़वाओ।' सभी भक्तों के भीतर आर्तता तो होती ही है। आर्तवाणी उन्होंने निकाली थी कि, 'हे भगवान, दु:ख से मुझे छुड़वाइए।' फिर भी वह भक्ति अच्छी है, उस पर ही सबकुछ लुटा बैठे। सबसे अधिक ऊँची भक्ति किसकी? सच्चे भक्तों की। वे सच्चे भगवान को नहीं भजते, परन्तु परोक्ष भगवान को भजते हैं, फिर भी वह सच्ची भक्ति है, वह प्रत्यक्ष को प्राप्त करवानेवाली होती है। परन्तु सच्चा भक्त कब कहलाता है? एक भी संकल्प-विकल्प नहीं पकड़े तब। वह क्या कहता है कि संकल्प-विकल्प भगवान करते हैं, सबकुछ भगवान पर छोड़ देता है। जब कि यह तो बेटे की शादी करवाए तब खुद शादी करवाता है और जन्मे तब खुद पेड़े बाँटता है और बेटा मर जाए तब भगवान ने मारा कहेगा! सच्चा भक्त तो सबकुछ भगवान पर छोड़ देता है। वह क्या कहता है, 'भगवान, मुझे क्या? भगवान तेरी लाज जा रही है।' वैसी भक्ति मिलनी मुश्किल है। एक 'रिलेटिव' को रियलाइज करता है और दूसरा 'रियल' को रियलाइज करता है। भक्तों को साक्षात्कार हो, वह क्या है? कि भीतर मुरलीवाले कृष्ण दिखते हैं, वैसी सिद्धि लाए होते हैं। परन्तु यदि वे मुझे मिलें तो मैं उनसे कहूँ कि, 'वह तो दृश्य है और तू दृष्टा है। तुझे यदि मुरलीवाले कृष्ण दिखते हैं, वे सच्चे कृष्ण नहीं हैं। वह तो दृश्य है और सच्चे कृष्ण तो जो उन्हें देखते हैं, वे हैं, वह तू खुद ही है। यह तो दृष्टि दृश्य में पड़ी है। दृष्टा में पड़े तो काम हो जाए।' भक्तों ने भी इस ध्येय को प्राप्त नहीं किया होता है। उन्हें भी उसकी ज़रूरत है। ध्येय हो तो खुद ध्याता होता है, परन्तु ध्येय का स्वरूप जानने के लिए गुरु चाहिए। नरसिंह मेहता ने क्या गाया है? १५२ आप्तवाणी-४ भक्ति : स्थूल से सूक्ष्मतम प्रश्नकर्ता : हर एक धर्म के शास्त्रों में नाम का महत्व बहुत बताते हैं, नाम का जप करना होता है, उसका क्या रहस्य होगा? दादाश्री : वह सब एकाग्रता के लिए है। 'नाम' स्थूल है, स्थूल भक्ति है। फिर 'स्थापना', वह सूक्ष्म भक्ति है, फिर 'द्रव्य', वह सूक्ष्मतर भक्ति है और अंत में 'भाव', वह सूक्ष्मतम है। ये चार प्रकार की भक्तियाँ हैं। तो सिर्फ महावीर, महावीर बोलते हों, तो भी स्थूल भक्ति हुई और यदि स्थापना यानी कि फोटो रखकर 'महावीर, महावीर' करें तो सूक्ष्म भक्ति कहलाती है। यह मेरा फोटो रखकर भक्ति करे उसकी तुलना में, मैं खुद हाजिर होऊँ और मेरी हाजिरी में भक्ति करे तो वह सूक्ष्मतर भक्ति कहलाती है। और फिर मेरी आज्ञा ही पाले तो वह सूक्ष्मतम भक्ति कहलाती है। मेरा कहना है, हमारी आज्ञा, उसके भाव में आ जाए तो वह भावभक्ति हो गई। वह तुरन्त फल देनेवाली है। बाकी तीनों प्रकार की भक्ति बहुत ही फल देनेवाली है। और सिर्फ 'यह' ही रियली केश है, इसलिए तो हम कहते हैं कि, 'दिस इज द केश बैंक इन द वर्ल्ड (इस दुनिया में सिर्फ यही नक़द बैंक है)।' इसे केश बैंक किसलिए कहते हैं कि अभी 'यहाँ' पर उच्चतम भावभक्ति होती है। नामभक्ति भी गलत नहीं है। नाम का वैसा नियम नहीं है। नाम में तो 'राम' बोले तो भी चलेगा और कोई 'नीम' बोलता रहे तो भी चलेगा। सिर्फ बोलना चाहिए। जो बोलें उसका भीतर उपयोग रहना चाहिए, ताकि और कहीं पर उपयोग नहीं जाए। आत्मा को एक घड़ीभर भी अकेला छोड़ा जाए ऐसा नहीं है, इसलिए कुछ न कुछ उसके लिए उपयोग रखना चाहिए। अर्थात् नामस्मरण करते हैं, वह कुछ गलत नहीं है। कोई वस्तु गलत होती ही नहीं इस जगत् में। लेकिन नाम, स्थापना और द्रव्य, वे तीनों ही व्यवहार हैं और सिर्फ भाव ही निश्चय है। व्यवहार में तो अनंत जन्मों से यही का यही किया है और भटकते ही रहे हैं। आचार्य हुए, साधु हुए, साध्वीजी हुए, ऐसे ही भटकते रहे हैं, मार्ग नहीं मिला। 'जहाँ लगी आत्मा तत्व चिह्नयो नहीं, त्यहाँ लगी साधना सर्व झूठी।' (कि जब तक आत्मातत्व प्राप्त नहीं किया तब तक सारी साधना झूठी है।)
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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