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प्रथमः सर्गः
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आकर्षित किया है जिसके अनुसार वृद्ध पुरुष या महान् पुरुष के आने पर युवकों को उठकर खड़ा हो जाना चाहिए और अभ्यागत पुरुष को नमस्कार करके उच्चासन पर उसे बैठाना चाहिये।
'ऊर्ध्व प्राणा पत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति ।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते ॥' इतिमनुः ॥ (२) इस श्लोक में 'पतत्पतङ्गप्रतिमः' पद में सूर्य का पतन असंभव होने के कारण आचार्य दण्डी ने अभूत उपमा अलंकार माना है, किन्तु उत्तरवर्ती आचार्यों ने अप्रसिद्ध उपमानत्व का योग न होने के कारण उत्प्रेक्षा का वर्णन किया है-- _ 'पतत्पतङ्ग इत्यत्र पतङ्गस्य पतनासम्भवादियमभूतोपमेत्याचार्य दण्डी प्रभृतयो बभणुः । अत एवाप्रसिद्धस्योपमानत्वायोगादुत्प्रेक्षेत्याधुनिकालंकारिकाः सर्वे वर्णयन्ति ।
प्रसङ्ग--इस श्लोक में माघ कवि नारद मुनि के पृथ्वी पर चरण-न्यास के प्रभाव का वर्णन करते हैं।
अथ प्रयत्नोन्नमितानमत्फणैधृते कथञ्चित्फणिनां गणैरधः। न्यधायिषातामभिदेवकीसुतं सुतेन धातुश्चरणौ भुवस्तले ॥ १३ ॥
अथेति ॥ अथाच्युताभ्युत्थानानन्तरं धातुः सुतेन नारदेन प्रयत्नोन्नमितास्त्रथापि मुनिपादन्यासभारादानमन्त्यः फणा येषां तैः फणिनां गणरधोऽधःप्रदेशे कथञ्चित् धृते स्थापिते भुवस्तले भूपृष्ठे । अभिदेवकीसुतं देवकीसुतमभि । लक्ष्यीकृत्येत्यर्थः । 'लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये'-(२।१।१४ ) इत्यव्ययीभावः । चरणीपादौ । 'पदघ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः। न्यधायिषातां निहिती। दधातः कर्मणि लुङ् । 'स्यसिचसी ( ६।४।६२)-' इत्यादिना चिण्वदिटि युक् । अत्र फणानां नमनोन्नमनासम्बन्धेऽपि मुनिगौरवाय तत्सम्बन्धाभिधानादतिशयोक्तिभेदः ।। १३ ॥
मन्वया--अथ धातुः सुतेन प्रयत्नोन्नमितानमत्फणैः फणिनां गणैः अधः कथञ्चित् ते भुवः तले अभिदेवकीसुतं चरणौ न्यधायिषाताम् ॥ १३ ॥
हिन्दी अनुवाद--इस (श्रीकृष्ण के अभ्युत्थान करने ) के पश्चात् ब्रह्मा के पुत्र (नारद जी) ने प्रयत्नपूर्वक उठाई और ( नारद मुनि के चरणों के भार के कारण) झुकती हुई फणों वाले सर्प-समूहों द्वारा नीचे बढ़ी कठिनाई से धारण किए गए भूतल पर देवकी-पुत्र ( श्रीकृष्ण ) के सन्मुख चरणों को रखा।
प्रसङ्ग-इसके पश्चात् आदि पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण ने पूज्य नारद का विधिपूर्वक पूजन किया।