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प्रथमः सर्गः अन्वयः--नभस्वतः आघटनया पृथक् रणद्भिः विभिन्नश्रुतिमण्डलैः स्वरैः स्फुटीभवद्ग्रामविशेषमूर्च्छनां महतीं मुहुर्मुहुः अवेक्षमाणम् ॥ १० ॥
हिन्दी अनुवाद--वायु के भाघात से उत्पन्न वीणा के तारों की झनझनाहट में पृथक् पृथक् मालूम होने वाले अनेक श्रुतिसमूहात्मक--सा-रि-ग-म-प-ध-नी आदि सात स्वरों द्वारा भारोहावरोह क्रमभेद को ( विभिन्न ग्रामों की मूर्च्छनाओं को ) व्यक्त करने वाली महती नामक निज वीणा को बारंबार (सकौतुक ) देखते हुए ( उस व्यक्ति को श्रीकृष्ण ने नारद समझा ॥ १० ॥
(नारद मुनि आकाश से भूतल की ओर आ रहे थे। वे हाथ में अपनी महती' नाम की वीणा लिये थे । वायु के आघात से वीणा के तार झंकृत हो रहे थे। जिनसे षडजऋषभ आदि सात-स्वर वनित हो रहे थे और उनसे ग्राम-विशेष की मर्छनायें भी स्पष्ट व्यक्त हो रही थीं। ऐसी वीणा को देखते हुए नारद जी आ रहे थे। )
विशेष--उपर्युक्त श्लोक में कवि ने अपने सङ्गीत ज्ञान का अच्छा परिचय दिया है । उक्त श्लोक में वर्णित स्वरों के ग्राम का अर्थ है-स्वरों का समूह । सङ्गीत शास्त्र के अनुसार-'यथा कुटुम्बिनः सर्वेऽप्येकीभूता भवन्ति हि । तथा स्वराणां सन्दोहो ग्रामं इत्यभिधीयते' ग्राम तीन, स्वर सात तथा मूर्च्छना इक्कीस होती हैं। स्वरों के उतार चढ़ाव तथा भारोह अवरोह को मूर्च्छना कहते हैं । एक-एक ग्राम की सात-सात मूर्च्छनायें कुल मिलाकर इक्कीस हैं--
'सप्तस्वरास्त्रयो ग्रामा मूच्छनाश्चैकविंशतिः।' प्रसङ्ग--महर्षि नारद अनुगमन करते हुए देवों को लौटाकर श्रीष्कृण के निवासस्थान पर पहुँचते हैं। निवर्त्य सोऽनुवजतः कृतानतीनतीन्द्रियज्ञाननिधिनभासदः । समासदत् सादितदैत्यसम्पदः पदं महेन्द्रालयचारु चक्रिणः ॥ ११ ।। निवत्यति ।। अतीन्द्रिया इन्द्रियमतिकान्ता देशकालस्वरूपाद्विप्रकृष्टार्थाः। 'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' (वा. १३३६ ) इति समासः । 'द्विगुप्राप्तापन्नालंपूर्वगति समासेषु परलिङ्गताप्रतिषेधो वक्तव्यः' इति विशेष्यलिङ्गत्वम् । तेषा ज्ञानं तस्य निधिः । सर्वार्थद्रष्टत्यर्थः। कृतानतीन् कृतप्रामाननुव्रजतोऽनुगच्छतः नभस्याकाशे सीदन्ति गच्छन्तीति नभःसदः सुरान् । 'सत्सद्विष'-(३।२।६१) इत्यादिना क्विप् । निवर्त्य प्रतिषिध्य स मुनिः सादितदैत्यसम्पदः सादिता: विध्वस्तीकृताःदैत्यानां सम्पदो येन तस्य चक्रिणः कृष्णस्य पदं स्थानं महेन्द्रालयचारु इन्द्रभवनमिव भासमानं समासदत् । समापरिषद्धातोर्लुङ् । 'पुपादि'-(३।१।५५) इत्यङ् । अत्र नतीनती पदः पदमिति च द्वयोय॑जनयुग्मयोरसकृदावृत्त्या छेकानुप्रासः । अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास इत्यनयोः संमृष्टिः ॥ ११ ॥