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पैर ऐसे सभी राजाओं के शिर पर रखा जा रहा है । भीष्म की गर्जना सुनकर शिशुपाल पक्षीय सभी राजा क्षुब्ध हो उठे । शिशुपाल नें अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा हे राजाओं ! तुम लोग इन पाँचों जारज सन्तान पाण्डवों के साथ इस बूढ़ी राजकन्या के साथ वध के योग्य कंस के दास कृष्ण को क्यों नहीं अभी मार डालते ? अथवा इसे मैं ही मारता हूँ इस कृष्ण को मारना कोई बड़ा कार्य नहीं है । ऐसा कहकर शिशुपाल सभामण्डप से बाहर निकल कर अपने शिविर में चला गया । अन्य राजा भी उसके पीछे-पीछे चले गये । शिशुपाल के शिविर में पहुँचते ही रणदुन्दुभि बज उठी । लोग इधर-उधर दौड़ने लगे । शूरवीरों ने कवच धारण कर लिया । शिशुपालपक्षीय वीर लोग रमणियों के साथ मद्यपान करने लगे । अनेकविध अपशकुन शिशुपाल पक्षीय वीरों को होने लगे । एक सुन्दरी अपने युद्ध के उत्साही पति से ईर्ष्या के साथ कहने लगी- हे वंचक ! तुम स्वर्ग की अप्सराओं के साथ निरन्तर भोग-विलास करने की इच्छा से इस युद्ध में जाने के लिए तत्पर हो । ऐसा कहकर वह उसे युद्ध में जाने से रोकने लगी । रमणियाँ युद्ध में जाते समय अपने पति का फिर दर्शन नहीं पाने की आशंका से काँप रही थीं ।
षोडश सर्ग
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{ युद्ध के लिये तत्पर शिशुपाल का दूत सभामण्डप में आकर कृष्ण को द्वयर्थ ( श्लिष्ट ) सन्देश देता है, जिसका तात्पर्य यह है कि या तो कृष्ण शिशुपाल की अधीनता स्वीकार कर लें, या युद्ध के लिये तैयार हो जायँ । दूत का उत्तर सात्यकि देता है । } युद्ध - यात्रा की तैयारी हो जाने के पश्चात् शिशुपाल द्वारा भेजे गए एक दूत ने, सभा में भगवान् श्रीकृष्ण के समीप आकर दो अर्थों वाली (प्रिय तथा अप्रिय ) बातें इस प्रकार कहने लगा शिशुपाल आपके अर्घ्य दान के अवसर पर आप से अप्रिय बातों को कहकर अत्यन्त पश्चात्ताप कर रहा है । [ उस अवसर पर केवल अपमान जनक बातें कहकर शिशुपाल इस बात का पश्चात्ताप कर रहा है कि मैंने श्रीकृष्ण को मारा क्यों नहीं ?} शिशुपाल अपने पक्ष के समस्त राजाओं के साथ मस्तक झुकाकर आपको प्रणाम करेगा और आपकी आज्ञा को शिर पर धारण करेगा । [ वह शिशुपाल अपने राजाओं के साथ आकर तुम्हें शिक्षा ( दण्डित करेगा ) देगा } आप अग्नि और सूर्य सदृश तेजस्वी हैं । सभी आपकी आज्ञा का पालन करते हैं । [ अग्नि के सम्मुख पतिङ्गे के सद्दश शिशुपालपक्षीय राजाओं के सामने तुम्हारा तेज है । इस प्रकार विविध प्रकार के . श्लिष्ट वचन कहकर दूत के चुप हो जाने पर श्रीकृष्ण भगवान् का संकेत पाकर सात्यकि कहने लगे - हे दूत ! तुम बड़े ही निपुण हो । भीतर से अप्रिय और बाहर से प्रिय ज्ञात होने वाली तुम्हारी बातें हमारे लिये बाहर से अप्रिय और भीतर से प्रिय मालूम हो रही हैं । तुम्हारा एक ही वाक्य बाहर से अत्यन्त कोमल है तो भीतर से अत्यन्त सरस कमलनाल से सदृश नितान्त कठिन है । इस प्रकार सात्यकि ने दूत की भर्त्सना करने के अनन्तर