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[ 38 ] त्रिकूट पर्वत की तीन चोटियों पर बैठे हुए तीन शेरों जैसे शोभित हुए । सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने अपनी समस्या को व्यक्त किया। शिशुपाल का वध करना आवश्यक है, किन्तु इसी समय युधिष्ठिर के 'राजसूय' यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए युधिष्ठिर का निमन्त्रण भी मिला है । इन दोनों आवश्यक कार्यों में से पहले किस कार्य को करना चाहिए । तत्त्वज्ञ भी अकेला होने पर कर्तव्य का निश्चय करने में संदिग्ध हो जाता है । अत: आप दोनों का विचार मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । श्रीकृष्ण का वचन सुनकर बलराम बोले - अपनी उन्नति और शत्रु का नाश- ये ही दो नीति की बातें हैं (२। ३०) । स्वाभिमानी पुरुष शत्रुओं का समूल नाश किए बिना उन्नति नहीं प्राप्त करते (२। ३३) । साधारण स्थिति में क्षमा पुरुषों का भूषण है, किन्तु अपमान या पराजय होने पर पराक्रम ही उनका आभूषण है । अत: बलरामजी ने कहा कि मेरे विचार में शिशुपाल की राजधानी चेदि' पर आक्रमण कर दिया जाय । युधिष्ठर यज्ञ करें, इन्द्र स्वर्ग का राज्य करें, सूर्य तपें और हम भी शत्रुओं का विनाश करें '। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ को सिद्ध करना चाहता है । किन्तु उद्धव, बलराम के उक्त विचारों से सहमत नहीं हैं । वे कहते हैं कि केवल बुद्धि पर अवलवित रहने पर ही कल्याण नहीं होता, कल्याण के लिए आवश्यक है उत्साहसम्पन्न होना । उद्धवजी बलराम के प्रत्येक तर्क का उत्तर देते हैं । वे कहते हैं कि समय-ज्ञाता राजा के लिए केवल तेज या क्षमा-धारण करने का कोई नियम नहीं है । वास्तव में समय (अवसर ) की प्रतीक्षा करनेवाले जिगीषु राजा के सभी कार्य लोगों की सहायता से अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं शिशुपाल अकेला है, ऐसा न समझें । वह राजाओं का समूह है । उस पर आक्रमण करने पर उसके मित्र और तुम्हारे शत्रु उससे मिलकर राजसूय यज्ञ में विघ्न डालेंगे । इस कारण आप ही युधिष्ठिर के शत्रु बन जायेंगे । क्योंकि मित्रसे वैमनस्य होने पर उसे कठिनता से प्रसन्न किया जा सकता है । उचित अवसर आये बिना शिशुपाल का वध करना अशक्य है । अत: अच्छा यही है कि गुप्तचरों को नियुक्त कर उसकी शक्ति का प्रथम पता लगाते रहें । तथा उसके पक्ष का भेदन करें । इसके अतिरिक्त इस समय शिशुपाल पर चढ़ाई करने में दूसरी बाधा, आपके बूआ के दिये हुए आश्वासन की है- आपने अपनी बूआ को आश्वासन दिया है – “तुम्हारे पुत्र के सौ अपराधों को मैं सहूँगा" - उसका भी पालन करना है । अन्त में यही निश्चय हुआ कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होना ही उचित है ।
१. यजतां पाण्डव: स्वर्गमवत्विन्द्रस्तपत्विनः । वयं हनाम द्विषत: सर्व: स्वार्थ समीहते ।। २। ६५
तृतीयसर्ग (द्वारकापुरी से श्रीकृष्ण का प्रस्थान तथा द्वारकापुरी और समुद्र का वर्णन )
उद्धव के सुविचारित विचार सुन लेने के पश्चात् युद्ध का आग्रह समाप्त हो जाने के कारण सौम्य मुखाकृति वाले श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ की ओर इस प्रकार प्रस्थान किया जैसे उष्ण किरणों वाला सूर्य उत्तर दिशा को त्याग कर दक्षिण-दिशा के मार्ग की ओर प्रस्थान