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कथासार
प्रथम सर्ग
{ आकाश मार्ग से नारद मुनि का द्वारिकापुरी में आगमन तथा श्रीकृष्ण से इन्द्र सन्देश का कथन । ] लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण एक दिन वसुदेव के घर में बैठे थे, उसी समय उन्होने आकाश नीचे की ओर फैलते हुए प्रखर तेज को देखा । किन्तु कुछ क्षणों के पश्चात ही उन्होने नारदमुनि को आकाश मार्ग से बादलों के नीचे-नीचे उतरते हुए देखा । नारद गौरवर्ण के थे । उनकी पीली जटाएँ हिमालय पर्वत पर उगी एवं पकी पीत वर्ण की लताओं जैसी थीं । शरीर पर कृष्ण मृगचर्म को धारण किये हुए वे अपनी अंगुली से वीणा को बजाते आ रहे थे । नारद के निकट आते ही श्रीकृष्ण अपने आसन से उठ खड़े हुए । श्रीकृष्ण ने पूजायोग्य देवर्षि नारद की अर्ध्य-पाद्य आदि पूजा की यथोचित सामग्रियो से पूजा की और उन्हें अपने सम्मुख आसन पर बैठाया । सत्कार के पश्चात् कृष्ण ने उन्हें आने का कारण पूछा । नारदजी ने स्तुतिरूप में श्रीकृष्ण की प्रशंसा की और पश्चात् अपने आगमन का कारण बताया । नारदजी श्रीकृष्ण कहने लगे कि आपने पृथ्वी के भार को हल्का करने के लिए ही अवतार धारण किया है । आपने ही नृसिंहावतार धारण करके हिरण्यकशिपु का वध किया था । उसी हिरण्यकशिपु ने 'रावण' के रूप में जन्म लेकर वरुण सूर्य, इन्द्र आदि देवों को दास बना लिया था । तब आपने राम के रूप में अवतार लेकर उसका वध किया था, आज वही रावण इस भूमण्डल पर शिशुपाल' के रूप में रावण का भी उपहास कर इस जगत् को उत्पीडित कर रहा है ।
अतः आप इस 'शिशुपाल' को नष्ट कीजिए । शिशुपाल के अत्याचारों से भयभीत इन्द्र ने यही सन्देश आपको कहने हेतु मुझे आपके पास भेजा है । इन्द्र इस सन्देश को कहकर नारदजी जैसे ही आकाश की ओर जाने लगे तभी श्रीकृष्ण रे 'ओम्' कहकर इन्द्र के कार्य को करने की स्वीकृति दे दी । उस समय शिशुपाल के प्रति उनकी कुटिल भृकुटि ऐसी परिलक्षित हो रही थी कि मानों शत्रुओं के नाश की सूचना देने वाला धूमकेतु नामक तारा आकाश में उदित हुआ हो ।
द्वितीयसर्ग
(श्रीकृष्ण का उद्धवजी तथा बलराम के साथ मन्त्रणा करना ) नारदजी के मुख से इन्द्र का सन्देश सुन लेने के पश्चात एक ओर तो 'राजसूय'यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए युधिष्ठिर द्वारा आमन्त्रित किये गये तथा दूसरी ओर जगत् को उत्पीडित करनेवाले शिशुपाल पर अभियान करने के इच्छुक श्रीकृष्ण द्विविधा में पड़कर व्याकुल होने के कारण मन्त्रणा करने के लिए श्रीकृष्ण, उद्धव और बलराम को साथ लेकर सभाभवन में गये । वहाँ सिंहासनों पर बैठे हुए वे तीनों— श्रीकृष्ण, बलराम और उद्धव
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