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करता है । उस समय श्रीकृष्ण ने छत्र-चामर सहित अनेक बहुमूल्य रत्नजटित अलंकारों को धारण किया था । उनके नख रक्तवर्ण के थे । उनके नीलआभावाले वक्षःस्थल पर मोतियों का हार दोलायमान था । ये कौस्तुभमणि धारण किये हुए थे । पीताम्बर को धारण किये हुए श्रीकृष्ण के हाथों में सुदर्शनचक्र, कौमोदकी गदा, नन्दक खड्ग, शार्ङ्गधनुष तथा पाञ्चजन्यशंख था । प्रस्थान करते समय नगाड़ों की प्रतिध्वनि हो रही थी । वे सर्वत्र अप्रतिहतगतिशील रथारूढ़ होकर चल रहे थे । यादवों की चतुरङ्गिणी सेना श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चल रही थी । हाथियों के मदज से मार्ग की धूल कीचड़ का रूप धारण कर रही थी । अश्वारोही तीव्र गतिवाले घोड़ों पर बैठकर वल्गाओं से उन्हें नियन्त्रित करते हुए जा रहे थे । द्वारकापुरी के सौन्दर्य निरीक्षण में मग्न श्रीकृष्ण को देखने के लिए नागरिकों की भीड़ त्वरा से आगे बढ़ रही थी । वह द्वारकापुरी समुद्र के मध्य में अपनी सुवर्णमयी चहारदीवारी की शोभा से अलंकृत थी । उसका प्रतिबिम्ब समुद्र के जल में स्वर्ग की छाया के तुल्य परिलक्षित हो रहा था । ऐसी स्वर्गोपम द्वारकापुरी का निरीक्षण करते हुए जैसे ही श्रीकृष्ण ने उससे बाहर निकल कर शैवाल के समान श्यामवर्णवाली समुद्रतटवर्ती वनावली को देखा वैसे ही समुद्रतट पर निरंतर बहने वाली एलालताओं की शीतल मन्द और सुवासित वायु श्रीकृष्ण के स्वेदलवों को सुखाने लगी । लवंग के पुष्पों की मालाओं से विभूषित यादवों के सैनिक नारियल के जल को पीते हुए तथा कच्ची सुपारियों का आस्वादन करते हुए आगे बढ़ रहे थे । इस कारण यादव सेना समुद्र से बहुत आगे बढ़ गयी थी ।
चतुर्थसर्ग (रैवतक पर्वत का प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन ) श्रीकृष्ण ने अपनी चतुरङ्गिणी सेना के साथ मार्ग में चलते हुए विविध प्रकार के धातुओं से युक्त बृहदाकारवाली पाषाण चट्टानों के ऊपर चारों ओर से उठते हुए मेघों से सूर्य के मार्ग को रोकने के लिए पुनः तत्पर विन्ध्याचल पर्वत की तरह अत्यधिक ऊँचे पंवत रैवतक को देखा । जिसके रत्नों की स्वर्णिम आभावाले शिखरों पर, इन्द्र नीलमणियों की श्यामलता से मनोरम तथा सौरभ से भ्रमरों को आकर्षित करती हुई लताएँ परिलक्षित हो रही थीं । अनेक शिखरों से आकाश को तथा समीपवर्ती लध्वाकारवाली पर्वतों की श्रेणियों से भूमण्डल को घेरे हुए इस पर्वत को देखकर उत्कण्ठित हुए श्रीकृष्ण को उनका सारथि दारुक उस रैवतक पर्वत का वर्णन इस प्रकार करने लगा -
बहुतुल्य रत्नों से भरे हुए इस पर्वत के शिखर इतने ऊँचे हैं कि वे सूर्य के समीपवर्ती दिखाई देते हैं । उसने कहा- सूर्य के उदय तथा चन्द्रमा के अस्त होने के अवसर पर दोनों पावों में लटकते हुए दो घंटोंवाले एक हाथी की तरह यह पर्वत शोभा देता है ।
दूर्वाओं से आच्छादित स्वर्णमयीं भूमिवाला यह पर्वत, हरताल के सदृश पीतवर्ण के नवीन वस्त्रवाले आपकी तरह शोभा दे रहा है । यह अपने उतुङ्ग शिखरों से गिरते हुए