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कोई गजराज नदी-तट पर पानी पी रहा है । इसी समय उसे दूसरे मस्त हाथी के मद-जल की सुगन्ध आ जाती है । वह क्रोध में सन्तप्त होकर अपनी सूंड में भरे हुए पानी को वापस ( बाहर ) गिरा देता है । और तेजी से अपने मूसलाकार दाँतों को जमीन पर अड़ा कर, दाँतों के प्रहार करने के वेग को रोकते हुए, स्वय गिर पड़ता है ।' ऐसे ही अन्य चित्र भी हैं. द्रष्टव्य हैं (१२। ५, १२। २२, १२। २४ ) आदि । ये तो हैं पशुओं की स्वाभाविक चेष्टाओं के यथार्थ चित्र । अब देखिए मानव प्रकृति का स्वाभाविक चित्र -
"प्रहरकमपनीय स्वं निनिद्रासतोच्चैः प्रतिपदमुपहूतः केनचिज्जागृहीति । मुहुर विशदवर्णा निद्रया शून्य शून्यां दददपि गिरमन्तर्बुध्यते नो मनुष्यः" ।
अपने पहरे के समय को व्यतीत कर सोने के इच्छुक किसी पहरेदार ने जब अपने जोडीदार को "उठो, जागो" ऐसा बार-बार उच्च स्वर में पुकारा तब वह सोया हुआ पहरेदार निद्रावश अस्पष्ट स्वर में अण्ट-सण्ट बातें तो बीच-बीच में बोलता रहा, किन्तु तब भी भीतर से वह नहीं जाग सका । कितना स्वाभाविक-यथार्थ चित्र है. प्रगाढ निद्रा में सोये हुए मनुष्य का । माघ का सच्चा कवि हृदय और उनका व्यापक-सूक्ष्म निरीक्षण इन वर्णनों से व्यक्त हो जाता है, जो एक सफल कवि के लिए आवश्यक है । इनके अतिरिक्त माघ ने नाट्यशास्त्र के विभिन्न अंगों की उपमा सुन्दर ढंग से देकर अपना उसमें वैदुष्य व्यक्त किया है । माघ एक उद्भट वैयाकरण थे । उन्होंने व्याकरण' के सूक्ष्म नियमों का पालन अपने काव्य में किया है । साथ ही व्याकरण के प्रसिद्ध ग्रंथों का भी उल्लेख उन्होंने किया है । एक उदाहरण पर्याप्त होगा -
त्वक्साररन्ध्र परिपूरणलब्धगीति-रस्मिनसौ मृदितपक्ष्मलरल्लकांगः । कस्तूरिकामृगविमर्दसुगन्धिरेति रागीव सक्तिमधिका विषयेषु वायुः ।।' ४। ६१
उपर्युक्त श्लोक में 'कस्तूरिकाविमर्दसुगन्धि' पंक्ति विचारणीय है । वार्तिक “गन्धस्येत्वे तदेकान्तग्रहणम्' के अनुसार यहाँ “इ” न होकर सुगन्धः होना चाहिये । कैयट,
१. व्याकरण - १। ५१, १९। ७५, १४। २३, २४, १४। ६६, १४। ४८, १४। २०, ४। ६१, इनके अतिरिक्त व्याकरणनिष्ठ प्रयोगों के कुछ उदाहरण ये हैं - ( १ ) पर्यपूपुजत् ( १.१४ ), अभिन्यवीविशत् ( १.१५ ), अचूचुरत् (१.१६ ), ( २ ) मध्ये समुद्रं ( ३.३३ ) ( 'पारे मध्ये षष्ठ्या वा' ), पारेजलं ( ३.७० ) ( ३ ) सस्मार वारणपतिः परिमीलिताक्षमिच्छाविहारवनवासमहोत्सवानाम् ।। ( ५.५० - अधीगर्थदयेशां कर्मणि ) ( ४ ) पुरीमवस्कन्द लुनीहि नन्दनं मुषाण रत्नानि हरामराङ्गनाः । विगृहय चक्रे नमुचिद्विषा बली य इत्थमस्वास्थ्यमहर्दिवं दिवः (१.५१-क्रियासमभिहारे लोट ) शिशुपालवध की अनेक हस्तलिखित प्रतियों की पुष्पिका में इस प्रकार लिखा दृष्टिगोचर होता है – 'इति श्री भित्रमालववास्तव्य दत्तकः सूनोर्महावैयाकरणस्य माघस्य कृतौ शिशुपालवधे......... इत्यादि ।।