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[ 34 ] था । इन कथाओं का उल्लेख विभिन्न अलंकारों के माध्यम से, अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने तथा विशेष भाव-बोध कराने के लिये किया गया है ।
राजशेखर ने कहा है - ( काव्यमीमांसा, अ० ८ ) कि सत्कवि इतिहास पुराण रूपी आँखों को विवेकरूपी अंजन से शुद्ध करके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थ को देखता है । सम्भव है, उक्त भावना ही काव्य को अलंकृत करने की रही हो । पुराण विषयक ज्ञान को जानने के लिए - (१। १५, ४९, ५०, २। ३८, ३९, ४०, ६०, ३। ६१, ४। २, ५। ३१, ६६, ६। १७, ८। ६४, ९।१४, ८०, ११। ३ ) आदि ये श्लोक पर्याप्त हैं । व्युत्पत्ति-राजनीति .. माघ कवि राजनीति के भी अच्छे ज्ञाता थे । बलराम और उद्धव के वार्तालाप द्वारा राजनीति की बारीक से बारीक खूबियों का निदर्शन किया गया है । अर्थान्तरन्यास अलंकार की सहायता से कवि ने राजनीति के तत्त्वों को समझाते हुए अर्थगाम्भीर्य को पुष्ट किया है । उदाहरणार्थ देखिए - (२।१०, २। २६, २८, २। ५४, ५७, ९६) आदि श्लोक । व्युत्पत्ति-आयुर्वेद - माघ की आयुर्वेद का भी अच्छा ज्ञान था । आयुर्वेद के तत्त्वों को कवि ने व्यावहारिक नीति के उदाहरणों से सरलरीति में समझाया है । देखिए - (२। ८४, ९३, ९४, ३। ७२, १२। २५, २०। ७६ ) आदि । व्युत्पत्ति-ज्योतिष - कवि ने आयुर्वेद की तरह ज्योतिष शास्त्र का भी अध्ययन किया था । माघ ने ज्योतिषशास्त्र में प्रसिद्ध ग्रह-नक्षत्रों एव ग्रह योगो की उपमाओं द्वारा प्रतिपाद्य विषय को सुन्दरता से समझाया है । एतदर्थ - द्रष्टव्य हैं - ( २। ३५, ४९, ८४, ९३, ९४, ३। २२, ९, ६, १२। २५, १५। १७, ४८, १३। २२) व्युत्पत्ति गज और अश्वशास्त्र -
माघ को पशु शास्त्र का अच्छा ज्ञान होने के कारण वे उनकी प्रकृति को अच्छी तरह जानते थे । उन्होंने हाथियों, घोड़ों, ऊटों, साँड़ों आदि का यथावत वर्णन किया है । स्वभावोक्ति के वर्णन में सबसे बड़ी सफलता तब मिलती है, जब वर्ण्य विषय का चित्र, वर्ण्य की चेष्टाओं की बारीकियाँ इस तरह वर्णित की जाय कि पाठक के हृदय-पटल पर वह हू-ब-हू अंकित हो जाय । स्वभाव की सूक्ष्मता का वर्णन वही कवि कर सकता है, जिसने पशु-पक्षियों या मानव प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण किया हो । माघ के स्वभावोक्तिमय वर्णनों में जो चित्रोपमता, कुशलता देखने को मिलती है, वह उत्तरवर्ती काल के अन्य कवियों में नहीं मिलती । माघ के पञ्चम, एकादश द्वादश तथा अष्टादश सर्ग में स्वभावोक्ति के अनेक सुन्दर चित्र है । एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे (५। ७, ६२, ६३, ६४, ६५)
गण्डूषमुज्झितवता पयसा सरोषं नागेन लब्धपरवारणमारुतेन । अम्भोधिरोधसि पृथुप्रतिमान भाग रुद्धोरु दन्तमुसलप्रसरं निपेते ॥ ( ५। ३६ )