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संशयाय दधतोः सरूपतां दूराभिन्नफलयोः क्रियां प्रति ।
शब्दशासनविदः समासयोर्विग्रहं व्यवससुः स्वरेण ते ।। (१४। २४ ) इसका तात्पर्य यह है कि स्वर या वर्ण का शुद्ध उच्चारण नहीं होने पर यथार्थ अर्थ व्यक्त नहीं होता है । अतः मन्त्रात्मक वाग्वज्र यजमान का ही नाश कर देता है । जिस प्रकार स्वर के अपराध से यज्ञ करने वाला इन्द्र का शत्रु ही मारा गया ।
एक पद में होने वाला उदात्त स्वर अन्य स्वरों को अनुदात्त बना डालता है । इस स्वर विषयक प्रसिद्ध नियम का प्रतिपादन माघ ने शिशुपाल के वर्णन में अत्यन्त सुन्दर रीति से किया है – 'निहन्त्यरीनेकपदे य उदात्त: स्वरानिव' ( २। ९५ ) इसके अतिरिक्त युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का विस्तार पूर्वक वर्णन कवि ने किया है । व्युत्पत्ति दर्शन -
विभिन्न दर्शन-शास्त्रों का ज्ञान माघ में परिलक्षित होता है । सांख्य के तत्त्वों का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है । प्रथम सर्ग में नारद ने श्रीकृष्ण की जो स्तुति की है, ( १।२३ - 'उदासितारं निगृहीतमानसैः...' ) वह सांख्य के अनुकूल ही है । इसके अतिरिक्त दूसरे सर्ग में बलराम की यह उक्ति ( 'विजयस्त्वयि सेनायाः ........ २। ५९ ) तथा राजसूय यज्ञ के अवसर पर यह कथन – 'तस्य सांख्ये पुरुषेण तुल्यतां........ १४। १९- भी सांख्य के अनुकूल ही है । मीमांसा दर्शन का परिचय राजसूय यज्ञ के प्रसंग में मिलता है - ( 'शब्दितामनाशब्दममुच्चकै...' १४। २० ) । निर्विकल्प प्रत्यक्ष (१/२) एवं सविकल्पक प्रत्यक्ष (१/३) के द्योतक श्लोक भी प्रंशसाह हैं ।
योगशास्त्र में प्रवीणता भी काव्य में दिखाई देती है 'मैत्र्यादिचित्तपरिकर्म विधाय' ... ( ४। ५५ ) – इस पद्य में चित्तपरिकर्म, सबीजयोग, सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातियोगशास्त्र के ही परिभाषिक शब्द है । इसके अतिरिक्त काव्य के चौदहवें सर्ग में यह -'सर्वेवेदितमनादिमास्थितं... (१४। ६२ ) श्लोक भी योग शास्त्र के तत्त्व की ओर इंगित करता है । कवि ने अद्वैत वेदान्त के तत्त्वों का प्रतिपादन अनेक स्थलों पर किया है । जैसा कि - (१४। ६२, १४। ६४ व १। ३२) इन श्लोकों से ज्ञात होता है।
आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त कवि को नास्तिक दर्शनों बौद्ध तथा जैन का भी पूर्ण ज्ञान था । 'सर्वकार्यशरीरेषु ( २। २८ ) इस पद्य में बौद्ध-दर्शन के तत्त्वों का उल्लेख है । कवि ने इन दर्शनों के सूक्ष्म विभेदों को उल्लिखित कर तत् विषयक अपने ज्ञान का परिचय दिया है । व्युत्पत्ति-पुराण - शिशुपालवध काव्य में निहित बहुज्ञता-जन्य गाम्भीर्य ऐतिहासिक तथा पौराणिक संकेतों के बाहुल्य के कारण अत्यधिक बढ़ जाता है । वैसे तो संस्कृत महाकाव्यों की कथाओं का स्रोत ही इतिहास-पुराण है । महाकवि माघ को पुराण का विशेष ज्ञान शि० भू०3