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निर्देशानुसार, उसके वंश, शौर्य (शिशुपालवध काव्य का प्रथमसर्ग एवं श्लोक १। ७० ) आदि की पर्याप्त चर्चा की है । क्योंकि ऐसे प्रतिनायक पर विजय प्राप्त करने वाले नायक का उत्कर्ष बढ़ता है । ( काव्यादर्श १। २१,२२ ) इसका मुख्य रस वीर है । और श्रृंगार आदि अन्य रस गौण हैं । इसके कथानक का प्रेरणास्रोत मुख्यतया भागवत है और गौण रूप से महाभारत जो लोक प्रसिद्ध है । इसमें २० सर्ग हैं । एक सर्ग में प्रमुख छन्द एक है, किन्तु नियमानुसार सर्गान्त में छन्द का परिवर्तन किया गया है । केवल चतुर्थ सर्ग में ही विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है । तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी का वर्णन और समुद्र का वर्णन है । चतुर्थ सर्ग में रैवतक पर्वत का मनोरम वर्णन है । पञ्चम सर्ग में श्रीकृष्ण के शिविर का वर्णन मुख्यरूप से अंकित है । ६, ७, और ८ वे सर्ग में ऋतुओं का वर्णन किया गया है । ९ वें तथा १० वें सर्ग में चन्द्रोदय एवं नायक नायिकाओं की सुरत-क्रीड़ा का वर्णन है । ११ वें सर्ग में प्रभात वर्णन है । १२ वें सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान वर्णित है । अन्त में यमुना नदी का वर्णन है । अन्तिम ३ सर्गों में शत्रु-सेना युद्ध स्थल पर आकर मिलती है । जहाँ श्रीकृष्ण
और शिशुपाल का युद्ध होता है । बीसवें सर्ग में उपसंहार रूप में युद्ध का वर्णन कर शिशुपाल के जीवन के साथ काव्य समाप्त हो जाता है ।
उपर्युक्त सर्गानुसार कथा-क्रम को देखने पर ऐसा लगता है कि चतुर्थ सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक वर्णन आवश्यकता से अधिक बढ़ा दिया है, जिससे कथानक की अन्विति का क्रम टूट सा गया है, यह एक बड़ा दोष परिलक्षित होता है । मल्लिनाथ अपनी 'सर्वकषा' नाम्नी टीका में लिखते हैं -
'नेताऽस्मिन् यदुनन्दनः स भगवान् वीरप्रधानो रसः, श्रृंगारादिभिरंगवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना ।
इन्द्रप्रस्थगमाधुपायविषयश्चैद्यावसादः फलम् ॥' महाकाव्य के मंगलाचरण विषयक आचार्यों के निर्देशानुसार इसमें श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगनिवासो वसुदेव-सद्मनि--।' माघ ने इस प्रकार मांगलिक "श्रीः" शब्द से अपने ग्रन्थ का आरम्भ करके "वस्तुनिर्देशात्मक" मंगलाचरण किया है । मल्लिनाथ लिखते हैं - "आशीराद्यन्यतमस्य प्रबन्धमुखलक्षणत्वाच्च काव्यफलशिशुपालवधबीजभूतं भगवतः श्रीकृष्णस्य नारददर्शनरूपं वस्तु आदौ श्रीशब्दप्रयोगपूर्वक निर्दिशन् कथामुपक्षिपति ।" श्री वल्लभदेव लिखते हैं - "अभिलषितसिद्ध्यर्थे मंगलादिकाव्यं कर्तव्यमिति स्मरणात्तु कविः - श्री शब्दमादौ प्रयुङ्कते ॥"
आलंकारिकों के अनुसार प्रबन्धों का कार्य महत् होना चाहिये । तदनुसार नैतिक, सामाजिक या धार्मिक प्रभाव की दृष्टि से इस काव्य का महत् कार्य 'शिशुपालवध" है, जैसा कि रामायण का 'रावण वध' है।