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द्वितीयः सर्गः उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ) जिनके दोषों को अन्प न जानता हो और स्वयं दूसरों के दोषों को जानते हों, ऐसे दोनों पक्षों (अपने राष्ट्र से और शत्रु के राष्ट्र से) वेतन प्राप्त करने वाले गुप्तचरों द्वारा कपट-लेखादिकों को दिखलाकर शत्रुपक्ष के राजा और मन्त्रियों में भेद उत्पन्न किया जाना चाहिये । ११३ ॥
प्रसङ्ग-अब उद्धवजी गुप्तचरों द्वारा किये जाने वाले दूसरे कार्य का उल्लेख करते हैं
उपेयिवांसि कर्तारः पुरोमाजातशात्रवीम् ।
राजन्यकान्युपायहरेकार्थानि चरैस्तव ॥ ११४ ॥ उपेयिवांसीति ॥ किञ्च उपायज्ञ: कायंसाधन कुशलस्तव चरन्तीति चरंगूद. चारिभिः । पचाद्य च । एकार्थानि त्वया स है क प्रयोजनानि राजन्यानां समूहा राजन्यकानि । 'गोत्रोक्ष-'(४।२।३९) इत्यादिना वुञ् । अजातशत्रोरिमामाजातशात्रवी पुरीमिन्द्रप्रस्यमुपेयिवांसि । 'उपेयिवान्-' (३।२।१०६) इत्यादिना क्व सुप्रत्ययान्तो निपातः। कर्तारः करिष्यन्ते । कृत्रः कर्मणि लुट । इन्द्रप्रस्थेऽस्माकं महत्कार्य भविष्यति तदध्वरयात्राव्याजेन सन्नद्ध रागन्तव्यमिति गूढं सम्दिश्य सत्र सर्वे मेलयितव्या इत्यर्थः ।। ११४ ।। __ अन्वयः-(हे कृष्ण !) उपायज्ञैः तव चरैः एकार्थानि राजन्यकानि । अजातशानवीं पुरीम् उपेयिवांसि कर्तारः ॥ ११४ ॥
हिन्दी अनुवाद-(उद्धव जी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि) उपायों को जाननेवाले अपने गुप्तचरों के द्वारा स्व-पक्षपाती अर्थात् आपके ही विचारों या प्रयोजनों को रखनेवाले राजाओं को यज्ञ के व्याज ( बहाने ) से इन्द्रप्रस्थ में बुला लेना चाहिये ।। ११४ ॥ ___ अभिप्राय यह है कि आपके गुप्तचर इन्द्रप्रस्थ पहुँच कर आपके पक्षपाती राजाओं को यज्ञ के बहाने सेनासमेत एकत्र करलें ॥ ११४ ॥
प्रसङ्ग-अब उद्धवजी कहते हैं कि-यज्ञ के अवसर पर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है
ननु तत्राध्वरकर्मणि को युद्धावकाश इत्याशक्य तौव महत्कलहबीजं सम्पादयति
सविशेषं सुते पाण्डोभक्तिं भवति तन्वति । __ वरायितारस्तरलाः स्वयं मत्सरिणः परे ।। ११५ ।।।
सविशेषमिति ॥ पण्डोः सुते युधिष्ठिरे भवति पूज्ये त्वयि अविशेषं यथा तथा भक्ति तन्वति सति तरलाश्चपला मत्सरिणो द्वषवन्तः परे शत्रवः स्वयमेव वैरायि
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