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शिशुपालवधम् समाप्ति पर पारितोषिक आदि की व्यवस्था हो, वह राजनीति भी पस्पश (गुप्तचरों ) के अभाव में शोभा नहीं देती। जैसे सूत्रों के अनुसार पदों के न्यास को प्रतिपादन करनेवाली, सुत्र-व्याख्यारूप काशिकादि ग्रन्योवाली और उत्तम महाभाज्यादि नियन्धनवाली शब्दविधा ( व्याकरण शास्त्र ) पस्पश ( महाभाष्य के प्रथमाध्यायका प्रथम आन्हिक ) के बिना शोभा नहीं देती । प्रस्तुत श्लोक में श्लेष और पूर्णोपमा का संकर होने से सङ्करालङ्कार ॥ ११२ ।। कहा गया है-"सर्वस्यैव शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित् , यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तस्केन गृह्यते ॥"
विशेष-पतञ्जलि रचित महाभाष्य के प्रथम अध्याय के प्रथम आन्हिक का नाम 'पस्पशआन्हिक' है । इसमें व्याकरण शास्त्र के प्रयोजनों का उल्लेख किया गया है। इन प्रयोजनों को जानने से ही व्याकरण शास्त्र का ज्ञान होता है। अतः जैसे व्याकरणशास्त्र के ज्ञान के लिये पस्पश-आहिक अत्यन्त आवश्यक है वैसे ही राजनीति के ज्ञान ( शत्रुपक्ष के १८ तीर्थों के ज्ञान ) के लिये गुप्तचरों को रखना आवश्यक होता है । इन के अभाव में राजा अन्धा ही रहता है
"तस्माचारप्रेषणमावश्यकम् तद्रहितस्य
राज्ञोऽन्धप्रायस्वादिति भाव ॥" ॥ ११२ ।। प्रसन-अब उद्धवजी गुप्तचरों के कर्तव्यों की ओर श्रीकृष्ण का ध्यान आकर्षित कर, उनका भावी कार्यक्रम क्या होना चाहिये, इसका उल्लेख करते हैं । न केवलं चारमुखेन वृत्तान्तज्ञानम् , अपि तूपजापश्च कर्तव्य इत्याह
अज्ञातदोषैर्दोषहरुद्दष्योभयवेतनैः ।
भेद्याः शत्रोरभित्यक्त'शासनै: सामवायिकाः ।। ११३ ॥ अज्ञातेति । फिञ्चाज्ञात दोषः पररज्ञातस्वफ मभिर्दोषज्ञ: स्वयं परमर्मज्ञरभिव्यक्तानि भेद्यस्याग्रे प्रकटितानि शासनानि तदमात्याद्यविश्वास कराणि कूटलिखि. तानि येषां तः उमयवेतनरुभयत्र भेद्यो स्वामिनि च वेतनं भृतिर्येषां तरुभय जीवि. का पाहिमिः । भेद्यनगरवास्तव्यश्वररित्यर्थः ! 'भृतयो ममं वेतनम्' इत्यमरः । शत्रोः सम्बन्धिनः समवायं समवयन्तीति सामवायिकाः सङ्घमुख्या: सचिवादयः । 'समवायासमवैति' (४।४।४३) इति ठक । उद्ष्य द्विषामेते दत्तहस्ता अस्माभिरेषां लिखितान्येव गृहीतानीत्युच्चदूषयित्वा भेद्याः विघटनीयाः ।। ११३ ।।
अन्धयः-अज्ञातदोषैः दोषज्ञैः अभिव्यक्तशासनैः उभयवेतनैः शत्रोः सामवा. यिकाः उद्ष्य भेथाः ।। ११३ ॥
हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी गुप्तचरों द्वारा किये जानेवाले गुप्त कार्यों का
१. • रभिव्यक्त ।