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द्वितीयः सर्गः
१४१ अन्वयः-पतः त्रुद्धिः तीक्ष्णा, अरुन्तुदा न, सतः कर्म प्रतापवत् , ( भपि) शान्तम् ( भवति ) सतः मनः सोम उपतापि न, (भवति)। वाग्मिनः वाक् अपि एका (भवति)।१०९।।
हिन्दी अनुवाद-जैसे सज्जनों की बुद्धि तीषण होती है, किन्तु वह मर्मस्थल को पीड़ा नहीं देती, ( उनका ) कर्म प्रतापयुक्त होता है, किन्तु शान्त रहता है । (कर पशु के समान हिंसक नहीं)। मन अभिमान से उष्ण रहता है, पर दूसरों को सन्तप्त नहीं करता । उनकी वाणी भी एक ही रहती है, अर्थात् वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहते हैं, उससे विचलित नहीं होते। अतः आपको भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिये । प्रस्तुन श्लोक में 'दीपकालङ्कार' है ।। १०९ ।।
प्रसन्न-उद्धवजी प्रस्तुत श्लोक में काल की महत्ता की ओर संकेत करते हुए श्रीकृष्ण को कहते हैं कि मय के पूर्व शिशुपाल का वध करना भी संभव नहीं है
अशक्यश्चाऽकाले नेद्यवध इत्याह
स्वयकृतप्रसादस्य तस्याहो भानुमानिव ।
समयावधिमप्राप्य नान्तायाऽलं भवानपि ।। ११०।। स्वयकृतेति ।। किञ्च अह्रो भानुमानिव स्थय कृत. प्रसादोऽनुग्रहः प्रकाशश्च यस्य तस्प चंद्यस्यानाय समयावधि नियतकालावसान मप्राप्य भवानपि नाल शक्तो न तथा च वयाऽपकोतिरेव । अन्यत्र किञ्चित्फलं स्यादिति भावः ।। ११० ॥
अन्वयः-( हे कृष्ण ! ) किञ्च अह्नः भानुमान इव स्वयंकृतप्रसादस्य तस्य अन्साय समयावधिम् अप्राप्य भवान् अपि न अलम ।। ११० ॥
हिन्दी अनुवाद -- (हे कृष्ण ! ) जैसे दिनका कर्ता स्वयं दिनकर (सूर्य) भी जबतक दिनकी नियन कालावधि का समाप्तिकाल, ( सायकाल ) नहीं आता, तबतक उसका (दिनका ) अन्त नहीं कर सकता, वैसे ही अपराधशत (सौ अपराधों) तक क्षमा करने की प्रतिज्ञा किये हुए आप (श्रीकृष्ण ) भी उस समयावधि के पूर्व उसका (शिशुपाल) का वध नहीं कर सकते ॥ ११० ॥
प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में उद्धव जी शिशुपाल पर आक्रमण करने के पूर्व आवश्यक कर्तव्य की ओर संकेत करते हैंतहि किमय मुपेक्ष्य एव नेत्याह
कृत्वा कृत्यविदस्तीथेरन्तः' प्रणिधयः पदम् ।
विदाकुर्वन्तु महतस्तलं विद्विषदम्भसः ।। १११ ।। १. ०स्तीर्थेष्वन्तः ।