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द्वितीयः सर्गः
शरीर सुदृढ होता है, इसके विपरीत स्थिति में उसका बल क्षीण होता है ।। ९४ ॥
विशेष-उपर्युक्त श्लोक में कवि ने व्यायाम की उपयोगिता की ओर संकेत किया है । आयुर्वेद भी व्यायाम पर बल देता है। शक्ति के अनुसार व्यायाम करना चाहिए, जिससे शरीर की वृद्धि होती है, किन्तु विपरीत अवस्था में तो शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला वही व्यायाम क्षय का कारण होकर शरीर को दुर्घल और रोगों का घर बना देता है ।। ९४ ॥
प्रसन-अप उद्धवजी शिशुपाल की शक्ति की ओर संकेत करते हैं। फलितमाह
तदीशितारं चेदीमां भवांस्तमवमस्त मा।
निहन्त्यरीनेकपदे य उदात्तः स्वरानिव ।। ९५ ॥ तदिति ॥ तत्तस्मादशक्या यस्याकायंत्वात्तं चेदीनामिशितारं शिशुपालं भवाम्मा वमस्त नाव मन्यस्व । मन्यतेसङि लुङ् । अनुदात्तत्वान्ने गगमः । कुठःयश्वैद्य : उदातः स्वराननदात्तानि वारीने कपदे एकस्मिन् पदन्यासे सुप्तिङन्तलक्षणे च निहन्ति हिनस्ति नोचः करोति च । अतिशूरत्वात् , अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (१।१५८) इति परिभाषाबलाच्चेति भावः ।। ६५ ॥
अन्वयः - ( तस्मात् ) तत् चेदीनाम् ईशितारम् (तं चैy ) भवान् (हे कृष्ण ! ) मा अवमंस्त, ( यश्चैवं यथा) यः उदात्त: स्वरान् इव अरीन् एकपदे निहन्ति ।। ९५ ॥
हिन्दी अनुवाद-अतः चेदिनरेश शिशुपाल को आप साधारण समझकर उसकी उपेक्षा ( अनहेलना ) न करें, वह बहुत शक्तिशाली है। वह एक ही आक्रमण में अनेक शत्रओं को नष्ट कर सकता है। जैसे उदात्त स्वर एक पद में अन्य स्वरों को नष्ट अनुदात्त (नीच) निहन्ति कर देता है ।। ९५ ।।
विशेष - वैदिक व्याकरण के नियमानुसार उदात्त स्वर वाले अक्षर से भिन्न अक्षर, अनुदात्त हो जाते हैं
'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्-६-१-१५८ अष्टा० ॥ ९५ ॥
कवि 'ध्याकरण शास्त्र' की परिभाषा के व्याज से प्रकृत अभिप्राय को स्पष्ट करते हैं कि जैसे उदात्त स्वर एक ही पद में अन्य स्वरों को अनुदात्त कर देता है, अर्थात् - 'निहन्ति', उसी प्रकार शिशुपाल उदात्त ( महाबलशाली ) होकर शत्रुओं को नष्ट कर देगा । इस हेतु शीघ्रता में शिशुपाल की उपेक्षा करना ठीक नहीं है ॥ ९५ ॥ __ प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी शिशुपाल को राजयक्ष्मारोग कहकर उसकी भयंकरता की ओर संकेत करते हैं