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अभिलाष रखने वाले महाकवि माघ को अपने प्रतिद्वन्द्वी कवि भारवि को पछाड़कर आगे बढ़ने की इच्छा करना स्वाभाविक ही था । माघ ने इस हेतु को बड़ी ही नम्रता से व्यक्त किया है
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'लक्ष्मीपतेश्चरितकीर्तनमात्रचारु
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...... सुकविकीर्तिदुराशयाऽदः
काव्यं व्यधत्त शिशुपालवधाभिधानम् ॥' (२०५ कविवंशवर्णनम् )
और तदनुसार अपने काव्य को सर्वभावेन श्रेष्ठ करने का प्रयत्न भी किया है । ( इसे हम किरातार्जुनीय और शिशुपालवध की तुलना में देख सकते हैं ।) अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए माघ ने भारवि की कीर्ति उसके काव्य की प्रखर द्युति को ध्वस्त करने में कुछ भी कसर नहीं छोड़ी । महाभारतीय कथाभाग में २ / ३ नवीन भाग भागवत तथा विष्णुपुराणों के अंशों को जोड़ना तथा महाभारतोक्त कथा भाग में परिवर्तन करना भी भारवि के आगे जाने का माघ का एक प्रयत्न है। साथ ही यशः प्राप्ति के साथ अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण का गुणगान करना भी है । अतएव माघ ने महाभारतीय कथा में थोड़ा परिवर्तन किया । भागवत के 'जरासंध के स्थान पर शिशुपाल जैसे पराक्रमी की स्थापना की है । जिससे उसके वध का संपूर्ण श्रेय श्रीकृष्ण को मिले । ( जो जरासंध के वध में नहीं मिलता ) क्योंकि क्रूरता व पराक्रम में भी रावण का उपहास करने वाले शिशुपाल जैसे एक वीर पुरुष का वध कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं कर सकता । इस छोटे से परिवर्तन से कथानक को एक मोड़ मिला है जो श्रीकृष्ण के चरित्र का वीरतापूर्ण तथा तेजोमय स्वरूप प्रस्तुत करता है ।
इसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए माघ ने काव्य में एकाधिक स्थानों पर श्रीकृष्ण के लिए - वराह, आदिवराह, महावराह जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है । डाँ० मनमोहन लाल ने इन विशेषणों का संकेत आदिवराह भोज अर्थात् मिहिरभोज ( जो माघ के आश्रयदाता थे ) की ओर माना है । 'महाकविमाघ पृ० १९२ देखिए - १ । ३३ या ३४, १४। १४, ४३, ७१, ८६, १५/५, १८/२५, ९८, १९/११६, २०/३३