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से भिन्न होने के कारण उसमें एकदम असंपृक्त है । कोई भी पेड़ यह दावा नहीं कर सकता कि वह मिट्टी से भिन्न होने के कारण एकदम अलग है । इसी प्रकार कोई भी तथाकथित मौलिक विचार यह दावा नहीं कर सकता कि वह परंपरा से एकदम कटा हुआ है । कार्य-कारण के रूप में, आधार- आधेय के रूप में परम्परा की एक अविच्छेद्य श्रृंखला अतीत में गहराई तक, बहुत गहराई तक गयी हुई है।' ऐसी स्थिति में हम यह कैसे कह सकते हैं कि माघ "रुढ़ियों का दास" है या उसका लक्ष्य अपने पूर्व कवियों की नकल करना'' है । माघ का लक्ष्य अपने पूर्व कवियों द्वारा वर्णित वर्णनों जैसा वर्णन कर उनके आगे बढ़कर 'कीर्ति' को प्राप्त करना रहा है । अत: उसे ऐसा करने के अतिरिक्त अन्य मार्ग भी नहीं था । वे प्रकृति से तो विनीत थे पर वे जो कछ कार्य करते उसके लिए वंश, प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा की एक उत्कट चाह उनके हृदय में बनी रहती थी । उन्होंने यशोलिप्सा के कारण ही अपने पाण्डित्य, चमत्कारी प्रतिभा एवं बहुज्ञता का स्थान-स्थान पर परिचय दिया है । माघ कलावादी कवि अवश्य हैं, वे 'विचित्रमार्ग' के प्रवर्तक भी हैं, किन्तु वे सत्कवि की यथार्थ कसौटी भी जानते हैं । उन्होंने अपने काव्य में शब्द और अर्थ दोनों के समन्वित सौन्दर्य पर ध्यान दिया है । ऐसी स्थिति में माघ के साथ न्याय करते समय हमें सर्वप्रथम उस युग चेतना को ध्यान में रखना चाहिए । जिसने माघ के व्यक्तित्व तथा उसके स्वभाव (Disposition) का निर्माण किया है । वे अपने स्वभाव से धार्मिक समन्वय में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे । इन सब बातों के अतिरिक्त महाकविमाघ अपने ढंग के शृंगारी-प्रेमी रसिक व्यक्ति थे । उनका प्रेम वासना-प्रधान है । एकस्थान पर वे कहते हैं – “स्वच्छ जल से धुले अंग, ताम्बूलचूति से जगमगाते होठ और महीन निर्मल हल्की सी साड़ी अथवा एकान्त स्थान-यही तो विलासिनियों का वास्तविक श्रृंगार है बशर्ते वह काम ( वासना ) से रहित न हो ।'' इस प्रकार का वासना-प्रधान-श्रृंगार वर्णन युग की विचारधारा से ही प्रभावित माना जायगा । शिशुपालवध- काव्य रचना के प्रेरक हेतु -
( १ ) सुकविकीर्तिदुराशा और ( २ ) कृष्णभक्ति
महाकवि कालिदास की ललित-मुधर, विनोदात्मक, रम्म्योदात्त और आदर्शवादी काव्य कृतियों के पश्चात्, लगभग १५० वर्ष के अन्तराल में महाकवि भारवि की
ओजपूर्ण, भारी-भरकम, विवेक प्रधान, और विचार दृष्ट्या यथार्थवादी कृति को संस्कृत-काव्याकाश में अपनी प्रखर द्युति से प्रकाशित देखकर सुकवि की कीर्ति का
१. "शब्दार्थो सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते ।" २। ८६ “स्वच्छाम्भः स्नपनविधौतमङ्गमोष्ठस्ताम्बूलद्युतिविशदो विलासिनीनाम् । वासश्च प्रतनु विविक्तमस्त्वितीयानाकल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्यः ।। ८। ७०।। ( शिशु० वध ८। ७० )
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