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कृति का निर्माण करता है तभी उसका काव्य- कौशल उस कृति में प्रस्फुटित होता है, और वह कृति पूर्ण वैभवता को प्राप्त होती है
कहा गया है
"The artist is then most powerful when he finds himself in accord with the age he lives in. And the plenitude of art is only reached when it marches with the sentiments which possess a community" (Mark Pattison's Milton ).
इस प्रकार हम देखते हैं कि माघ के कवि का महत्त्व केवल पाण्डित्य के कारण ही नहीं है, अपितु इसलिए है कि वह समाज की भावनाओं को समझकर काव्य में अपने युग के धर्म, समाज, राजनीति आदि विविध क्षेत्रों का व्यापक चित्र अंकित कर सका है । किन्तु उसके आलोचकों की दृष्टि सदा एकांगी रही है । माघ के पाण्डित्य की चकाचौंध से दीप्त आँखों से उसके काव्य को देखने वाले प्राचीन पण्डितों ने उसे कालिदास भारवि से भी श्रेष्ठ ठहराया है । यहाँ तक कि उसके काव्य को देखकर महाकाव्यपञ्चक पर टीका करने वाले प्रखर पाण्डित्य से विभूषित रसिक मल्लिनाथ ने अपने ये विचार बड़ी तन्मयता से व्यक्त किये हैं "धन्यो माघकविर्वयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात् । " निश्चय ही मल्लिनाथ की यह उक्ति निर्मूल नहीं है । उनके विचार में अत्यधिक व्युत्पन्न कविवर माघ के व्यक्तित्व में हृदय और मस्तिष्क का अपूर्व संगम देखने को मिलता है । किन्तु अर्वाचीन पण्डित माघ को समुचित रीति से समझने में असमर्थ रहे हैं । वास्तव में बहुज्ञता और विद्वत्ता में माघ अपने पूर्ववर्ती कवियों कालिदास, - भारवि, भट्टि में किं बहुना - श्रीहर्ष से भी एक कदम आगे ही बढ़े हुए दिखाई देते हैं । यदि देखा जाय तो कालिदास मूलत: कवि हैं, भारवि राजनीति के प्रकाण्ड विद्वान् और भट्टि शुष्क वैयाकरण तथा उत्तरवर्ती श्रीहर्ष विशेष रूप से दार्शनिक ही ज्ञात होते हैं । किन्तु माघ उक्त सभी क्षेत्रों के मर्मज्ञ पण्डित हैं । उन कवियों का ज्ञान क्षेत्र एकाङ्गी है, जबकि माघ की गति सर्वत्र है । वेद
१. १ - तावद् भा भारवेर्भाति यावन् माघस्यनोदयः ।
उदिते तु पुनर्माघे भारवेर्भा वेरिव ।।' 'कृत्स्न प्रबोधकृद् वाणी भा रवेरिव भारवेः । माघनैव च माघेन कम्पः कस्य न जायते ॥' ३ - माघेन विघ्नोत्साहा नोत्सहन्ते पदक्रमे । स्मरन्तो भारवेरेव कवयः कपयो यथा ॥ ४ - उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ – गौरवम् ।
दण्डिनः पदलालित्यं माद्ये सन्ति त्रयो गुणाः ॥' अवयः केवलकवयः केवलकीरास्तु केवलं धीराः । पण्डितकवयः कवयः तानवमन्ता तु केवलं गवयः ॥
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