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इसका यह तात्पर्य नहीं है कि 'माघ' के पास कवि-हृदय है ही नहीं । निश्चय ही उसके पास कवि हृदय है और वह किसी प्रकार कम नहीं है । किन्तु जहाँ भी उसका कवि जाता है, अकेला नहीं जाता, वह अपने पाण्डित्य के घटाटोप, अपने सामंतवादी लवाज में ( बहुज्ञता ) के साथ जाता है । उसका युग निर्मित व्यक्तित्व, उसका स्वभाव (Nature) उसके कवि को एकाकी जाने से रोक लेता है । वस्तुत: काव्य-कृति की सफलता में कवि-स्वभाव और युग-भावनाओं का प्राधान्य रहता है । जो कवि अपनी रुचि तथा लोक-भावना के विपरीत काव्यनिर्माण करता है, वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता । इसीलिए राजशेखर ने काव्यमीमांसा में कहा है कि "कवि को पहले अपना ही संस्कार करना चाहिये । मेरा संस्कार कितना है, किस भाषा में मैं समर्थ हूँ, लोगों की रुचि किस विषय की ओर है, मेरा काव्य रचना का उद्देश्य क्या है ? मेरा संरक्षक किस गोष्ठी में शिक्षित है अथवा उसका मन कहाँ लगता है, यह जानकर काव्यरचना के लिए भाषा विशेष का आश्रय लेना चाहिए ॥"
'कविः प्रथममात्मनमेव कल्पयेत् । कियान्मे संस्कारः, क्व भाषाविषये शक्तोऽस्मि, किं रुचिर्लोकः, परिवृढो वा, कीदृशि गोष्ठयां विनीता, स्वास्य वा चेतः, संसजत इति बुद्ध्वा भाषा विशेषमाश्रयेत" इति आचार्याः ।।
यदि कवि ने उक्त निर्दिष्ट बातों की ओर ध्यान न देकर अपने काव्य लिखने का वही उद्देश्य हेतु 'दुष्ट राजा या असुर का विनाश कथन मात्र' – ग्रहण किया जो इतिहास या पुराण के लेखक का था, तो उसकी कृति केवल इतिहास या पौराणिक कथा की पुनरावृत्ति मात्र होकर रह जायगी । उसकी कृति और पुराण- इतिहास में कोई अन्तर नहीं रहेगा । उसमें एक व्यापक हेतु के अभाव में कवि युग की भावनाएँ भी मुखरित नहीं हो सकेंगी । अतः ऐसे केवल इतिवृत्त मात्र कथन करने के लिए एक महाकवि की क्या आवश्यकता है ? 'पेरेडाइज लॉस्ट' (Paradise Lost) के कवि 'मिल्टन' ने भी पहले महाकाव्य की रचना के लिए योग्य विषयों की एक सूची बनाई थी, जिसमें पुराण-प्रसिद्ध - (Legendary) अर्थर की कथा का विषय क्रम में प्रथम था । किन्तु विचार-मन्थन करने पर स्वरुचि एवं अपने अभिलषित हेतु की पूर्ति उसके द्वारा न हो सकने पर उसने 'बायबिल' के एक प्रसंग पर अपने महाकाव्य-पेरेडाइजलॉस्ट' की रचना की । उसके आलोचक ( डिक्सन Dixon.p.193) डिक्सन ने लिखा है कि कवि मिल्टन ने अपने स्वभाव-रुचि के अनुकल विषयों को ग्रहण कर अन्य विषयों का त्याग कर दिया । "What was akin to his own nature he took, the rest he put aside with perfect unconcern". वास्तव में जब कवि या कलाकार अपनी तथा लोक-रुचि के साथ समरस-तदाकार-होकर उसके सुर में अपना सुर मिलाते हुए अपनी
१. काव्यमीमांसा, अ० १०,