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शिशुपालवधम्
अन्वयः—– रत्नस्तम्भेषु सङ्क्रान्तप्रतिमाः ते एकाकिनः अपि परितः पौरुषेयवृताः इव चकाशिरे ॥ ४ ॥
हिन्दी अनुवाद - (यद्यपि वे तीनों वहाँ अकेले ही थे, इनके साथ और कोई न था, तथापि ) समामण्डप के रतनजटित स्तम्भों में उनका प्रतिबिम्ब पड़ने पर एकएक भी वे अनेक से मालूम होते थे ॥ ४ ॥
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विशेष - यद्यपि राजनीति के शास्त्रकारों के मत में मन्त्रमा के लिये ऐसा स्थान होना चाहिए
"निस्तम्भे निर्गवाचे च निर्मित्यन्तरसंश्रये ।
प्रासादा स्वरण्ये वा मन्त्रयेद्भावभाविनौ ॥"
इस प्रकार कामन्दक आचार्य के मत में मन्त्रगागृह में स्तम्भप्राचुर्य का निषेध है, अर्थात् इस काव्य में सनागृह में एनजटित स्तम्भों का वर्णन होने से इस स्थान का मन्त्र के अयोग्य होना सूचित होता है, तथापि उक्त वर्णन एकान्त स्थान का उपलक्षण होने से यहाँ भी एकान्त स्थान होने से कोई दोष प्रतीत नहीं होता ॥ ४ ॥
मनु ने -- पर्वतपर चढ़कर, एकान्त प्रासाद में या निर्जनवन में दूसरे से अज्ञात होते हुए मन्त्री के साथ मन्त्रमा करने के लिये कहा है | मनु ७१४७
प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में कविनाघ उचत ( ऊँचे ) स्वर्ग -सिंहासन की शोमा का वर्णन करते हैं ।
मध्यासामासुरुत्तुङ्गहेमपीठानि यान्यमी ॥
तैरूहे केसरिक्रान्तत्रिकूटशिखरोपमा ॥ ५ ॥
अध्यासामासुरिति ॥ बभी त्रयो यान्युतुंङ्ग हेमपीठान्यासनानि वस्याचामासुषितष्ठः । येषूपविष्टा इत्यर्यः । 'वधिशीङस्यानां कर्म ( ११४१४६ ) इजि कर्मत्वम् । ‘आसउपवेशने' लिट् । 'दयावान' (३।१।३७) इत्याम्प्रत्ययः । कृचानुप्रयुज्यते लिटि' ( ३|११४० ) इत्यस्वेरनुप्रयोगः । ' आम्प्रत्ययवत्कृत्रोऽनुप्रयोगस्व' ( ११३६३ ) इति कृञ एवेति नियमादस्वेर्नात्मनेपदम् । तंः पीठः केसरिभिः निः कान्तानां त्रिकूटस्य त्रिकूटाद्रेः शिखराणामुपमा सादृश्यमुहे ऊढा । वहेः कर्मनि लिड् सम्प्रसारणम् । त्रीणि कूटान्य प्रेत्यन्वर्थसंज्ञा । 'कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम्' इत्यमरः । उपमालङ्कारः ॥ ५ !!
अन्वयः—अमी यानि उत्तमपीठानि अध्यासामासुः तैः केसरिकान्तत्रिकूटशिखरोपमा उहे ॥ ५ ॥
हिन्दी अनुवाद – तीनों (श्रीकृष्ण, उद्धव और बलराम ) जिन ऊंचे-ऊंचे