SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ शिशुपालवधम् विनाश-सूचक केतु नामक तारे ने भृकुटि के चढ़ने के बहाने अपना स्थान ग्रहण कर लिया ॥ ७५॥ तात्पर्य यह है कि-- नारदमुनि इन्द्रका पूर्वोक्त सन्देश सुनाकर जब आकाश में उड़ गये तब वे चन्द्रमा की तरह प्रतीत होने लगे और इधर भगवान् श्रीकृष्ण का मुख क्रोध से अत्यन्त लाल हो गया मौर उन्होंने शिशुपाल का वध करना स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्ण के मुखपर भृकुटि इस तरह चढ़ गई थी कि जिस तरह आकाश में शत्रु विनाश का सूचक 'केतु' उदित हुआ हो। शुभ्र होने से नारदमुनि चन्द्रमा के समान थे और श्रीकृष्ण का मुखमण्डल आकाश था और उनकी वक्र भृकुटि 'केतु' का तारा था। आकाश में चन्द्रमा के समीप धूमकेतु के उदय होने से राजाओं का नाश होता है। अतः शिशुपाल का वध अवश्य होगा, यह सूचित होता है। कहा भी है "चन्द्रमभ्युत्थितः केतुः क्षितीशानां विनाशकृत् ।" ॥ ७५॥ विशेष-कवि माघने चमत्कार उत्पन्न करने तथा मंगलान्त करने के लिए सर्ग के अन्तिम श्लोक में भी प्रथम श्लोक की तरह 'श्री' शब्द का प्रयोग किया है। मंगलाचरण के विषय में भाष्यकार भगवान् पतञ्जलि ने इस प्रकार कहा है__'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ने, वीरपुरुषाण्यायुष्मत्पुरुषाणि च भवन्ति, अध्येतारश्च प्रवक्तारो भवन्ति ।' ॥ इति केशवसदाशिवशास्त्रिमुसलगांवकरेण विरचितायां रहस्यबोधिनी. व्याख्यायां नारदागमनं नाम प्रथमः सर्गः ॥
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy