________________
५४
शिशुपालवधम्
जानकीजी को नहीं छोड़ा, वस्तुतः मानीजनों का सदा एकमात्र अभिमान ही धन होता है ।। ६७ ।।
( उस रावण ने मनु के वंश में विष्णु के अवतार भगवान् — श्रीरामचन्द्रजी को अपना संहारक जानते हुए भी भगवती सीताजी को नहीं छोड़ा, ठीक ही है- वचन के धनीमानी पुरुष प्राण भले ही व्याग दें पर अपनी टेक नहीं छोड़ते ) ॥ ६७ ॥
विशेष -- 'मनोः कुले जातम्' मनु के कुल में उत्पन्न । पुराणों के अनुसार सूर्यवंशियों के पूर्वज कोई मनुनामक राजा हुए थे । उन्हीं के वंश में राम का प्रादुर्भाव हुआ था । कवि कालिदास ने 'रघुवंश' महाकाव्य में रघुवंश के आदि पुरुष का वर्णन इस प्रकार किया है
"वैवस्वतो मनुर्नाम माननीय मनीषिणाम् । आसीन्महीक्षितामाद्यः
प्रणवश्छन्दसामिव ॥”
प्रसङ्ग - पूर्व श्लोक क्र० ६७ के साथ |
स्मरत्यदो दाशरथिर्भवन्भवानमुं वनान्ताद्वनितापहारिणम् ॥ पयोधिमाषद्ध' चलजलाविलं विलङ्घ्य लङ्कां निकषा हनिष्यति ॥ ६८ ॥
स्मरतीति ॥ भातीति भवान् । भातेर्डवतुः । दशरथस्यापत्यं पुमान्दाशरथिः । 'अत इन्' ( ४।१।१५ ) इतीञ्प्रत्ययः । भवन् रामः सन्नित्यर्थः । भवतेलंटः शत्रादेशः । वनान्ताद्दण्डकारण्याद्वनितापहारिणं सीतापहर्तारममुं रावणम् । आबद्धः प्रक्षिप्ताद्रिभिवंद्ध सेतुः अत एव चलन्ति जलानि यस्य स च । अत एव आविलश्च तमाबद्धचलज्जलाविलं पयोधि विलङ्घय लङ्कां निकषा लङ्कासमीपे । 'समयानिकपाशब्द सामीप्ये त्वव्यये मतो' इति हलायुधः । 'अभितः परितः समयानिकपाहाप्रतियोगेऽपि' इति द्वितीया । हनिष्यति अवधीत् । 'अभिज्ञावचने लृट् ' ( ३।२।११२) इति भूते लृट् । अदो हुननं भवान्स्मरतीति काकुः । प्रत्यभिजानासि किमित्यर्थः । शेषे प्रथमः ॥ १८ ॥
अन्वयः - भवान् दाशरथिः भवन् वनान्तात् वनितापहारिणम् अमुम् आबद्धजलाविलं पयोधिं विलङ्य लङ्कां निकषा हनिष्यति, अदः स्मरति (कच्चित् ) ॥ ६८ ॥
हिन्दी अनुवाद - ( नारदजी - श्रीकृष्ण को स्मरण कराते हुए कहते हैं कि ) आपने दशरथपुत्र ( रामचन्द्र ) होकर, दण्डकारण्य से स्त्री ( सीताजी ) का अपहरण करनेवाले उस ( रावण ) को, ( सेतु ) बँध जाने के कारण चञ्चल एवं क्षुब्ध जल से पंकिल बने हुए समुद्र को लाँघकर लङ्कां के निकट मारा था, यह ( आप ) स्मरण करते हैं ? ।। ६८ ॥
१. ० माविद्ध० ।