________________
शिशुपालवधम् ___ अन्धय - तस्य जनाभिभाविना महीयसा महसां महिम्ना मुहुः तिरस्कृतः तनुः तनूनपात् आधिजैः वाष्पैः द्विगुणीकृतं धूमवितानं धभार ।। ६२॥
हिन्दी अनुवाद-उस (रावण) के लोकोत्तर ( लोक को अभिभूत करनेवाले) अत्यन्त महान् तेजों के महत्व से पुनः पुनः तिरस्कृत हुए (अतएव) कृश हुए अग्नि ने मानसिक पीड़ा-जन्य आसुओं से द्विगुणित धूमपुञ्ज को धारण किया ।। ६२ ।।
(रावण के लोकोत्तर तेज से पराभूत अग्नि ने मानसिक पीड़ा से उत्पन्न निःश्वास की उपमा छोड़ते हुए द्विगुणित धूवे को धारण किया। रावण के तेज के सामने अग्नि का तेज क्षीण हो गया था, केवल धूआ ही शेष रह गया था।)
प्रसन्न--प्रस्तुत श्लोक में रावण के हाथियों द्वारा दिग्गजों के पराजित होने का वर्णन किया गया है। 'तदीयमातङ्गघटाविघट्टितैः कटस्थलपोषितदानवारिभिः ॥ गृहीतदिक्कैरपुनर्निवर्तिभिश्चिराय याथायमलम्भि दिग्गजेः॥ ६३॥
तदीयेति ॥ तदीयमातङ्गानां घटाभिर्दू हैः विघट्टितरभिहतः । 'गजानां घटना घटा' इत्यमरः। अतएव कटस्थलेभ्यः प्रोषितान्यपगतानि दानवारीणि येषां तः। गृहीताः पलाय्य संश्रिता दिशा यस्तैगृहीतदिक्कः । 'शेषाद्विभाषा' (२४१५४ ) इति कप् । अपुननिवतिभिर्भयात्तत्रैव स्थित दिग्गजः चिराय याथायं दिक्षु स्थिता गजा दिग्गजा इत्यनुगतार्थनामकत्वमलम्भि लब्धम् । लभेय॑न्तात्कर्मणि लुङ । 'विभाषा चिण्णमुलोः' (७.११६६) इति विकल्पान्नुमागमः ॥ ६३ ॥
अग्वयः-तदीयमातङ्गघटाविघट्टितैः कटस्थलप्रोषितदानवारिभिः गृहीतदिक्कैः अपुनर्निवर्तिभिः दिग्गजैः चिराय याथार्यम् अलम्भि ।। ( ६३ ) ॥
हिन्दी अनुवाद-उस रावण के गज-समूह से आहत, (अतः) गण्डस्थलों से लुप्तमदजलवाले, (भय के कारण भागकर) दिशाओं का आश्रय लेनेवाले और पुनः (अपने पूर्वस्थानों को) न लौटनेवाले दिशाओं के गजों ने चिरकाल के लिएभिन्न-भिन्न दिशाओं में रहनेवाले इस यथार्थ नाम को प्राप्त किया है ।। ६४ ॥
विशेष-आठों दिशाओं में रहनेवाले आठ दिग्गजों के नाम इसप्रकार हैं"ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः। पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः॥" पूर्व दिशाका दिग्गज 'ऐरावत', दक्षिण-पूर्व का 'पुण्डरीक' दक्षिण का 'वामन', दक्षिणपश्चिम का 'कुमुद', पश्चिम का 'अञ्जन', उत्तर-पश्चिम का 'पुष्पदन्त', उत्तर का 'सार्वभौम' पूर्व-उत्तर का 'सुप्रतीक' है ।। ६४ ॥
प्रसङ्ग--कविमा यहाँ रावणकृत सर्प और चुगुलखोरों के पराजय का वर्णन करते हैं
परस्य मर्माविधमुज्झतां निजं द्विजिह्वतादोषमजिह्मगामिभिः ॥ तमिद्धमाराधयितुं सकर्णकः कुलैर्न भेजे फणिनां भुजङ्गता ॥ ६४ ॥