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प्रथमः सर्गः
२३ (समस्त संसार के अन्धकार को दूर करनेवाला सूर्य अपने असंख्य किरणों से रहते हुए भी जिस तम को ( अज्ञान रूपी मोह) को दूर न कर सका उसे आपने दूर कर दिया ।। २७॥
प्रसङ्ग--इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने नारद जी को वेदों का अक्षय निधि
कृतः प्रजाक्षेमकृता प्रजासृजा सुपात्रनिक्षेपनिराकुलात्मना । सदोपयोगेऽपि गुरुस्त्वमक्षयो निधिः श्रुतीनां धनसम्पदामिव ॥ २८॥
कृत इति । प्रजानां जनानामपत्यानां च क्षेमकृता कुशलकारिणा। 'प्रजा स्यात्सन्तती जने' इत्यमरः । सुपात्रे योग्यपुरुषे कटाहादिदृढभाजने च निक्षेपेण निधानेन निराकुलात्मना स्वस्थचित्तेन । 'योग्यभाजनयोः पात्रम्' इत्यमरः। प्रजासृजा ब्रह्मणा पुत्रिणा च त्वं घनसम्पदामिव श्रुतीनां वेदानां सदोपयोगे दानभोगाभ्यां व्ययेऽप्यक्षयः । एकत्राऽऽम्नानादन्यत्रानन्त्याच्चेति भावः । गुरुरुपदेष्टा संप्रदायप्रवर्तक इति यावत् , अन्यत्र महान् । निधीयत इति निधिः निक्षेपः कृतः। उपसर्गे घो: कि ( ३।३।६२)। श्रुतिसंप्रदायद्वारा धर्माऽधर्मव्यवस्थापकतया जगप्रतिष्ठाहेतूनां भवादृशां दर्शनं कस्य न श्लाघ्यमिति भावः। अत्र शब्दमात्रसाघात् श्लेषोऽयं प्रकृतविषय इत्याहुः ।। २८ ।। __ अन्वयः-प्रजाक्षेमकृता सुपात्रनिक्षेपनिराकुलात्मना प्रजासृजा स्वं धनसम्पदाम् इव श्रुतीनां सदा उपयोगे अपि अपयः गुरुः निधिः कृतः ।। २८॥
हिन्दी अनुवाद--प्रजाओं के ( पक्षान्तर में-सन्तानों के ) कल्याणकर्ता (रक्षक) तथा योग्य पात्र (धातु भादि की निमित दृढपात्र) में स्थापित करने के कारण निश्चिन्त चित्त वाले ब्रह्मा (पक्षान्तर में-सन्तान वाले) ने आपको धनसम्पत्तियों की तरह वेदों का सदा उपयोग करते रहने पर भी ( व्यक्त करते रहने पर भी) कभी समाप्त न होनेवाली निधि बनाया है ॥ २८ ॥
(जैसे आगे की पीढ़ी की सहायता के लिये कल्याण कामना से उनके पूर्वज लोहे की बड़ी-बड़ी सन्दूकों में असीम धनसम्पत्ति की धरोहर रखकर निश्चिन्त हुआ करते हैं, उसी तरह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी सत्पात्ररूप आपको अध्ययन-अध्यापनादि में सदा उपयोग करते रहने पर भी कभी क्षय न होनेवाला वेदों का महान् निधि बनाकर सदा के लिये स्वयं को निश्चिन्त बना लिया है)॥२८॥
प्रसङ्ग-इस श्लोक में श्रीकृष्ण नारद मुनि से कहते हैं कि आपके दर्शन से कृतार्थ होने पर भी मैं आपके सारगर्भित वचन सुनना चाहता हूँ।