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तृतीय सर्ग
रण कर सुदक्षिणा ने समय पूर्ण होने पर शुभ मुहूर्त में पुत्र को जन्म दिया । के जन्मकाल में सभी वस्तुएँ प्रसन्नतामय दीखने लगीं। दिलीप ने उसका 'रघु' । रघु चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगे और थोड़े ही दिनों में सभी कला-कौशल एवं पारंगत हो गये । जवान होने पर राजा दिलीप ने उनका विवाह कराकर उन्हें द पर नियुक्त कर सौवाँ अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ करके उसकी पूर्ति के लिए रघु को कर दिग्विजय के लिए अश्व छोड़ा । इन्द्र ने उसी अश्व को चुरा लिया। घोड़े के से राजकुमार रघु चकित हो उठे। उसी समय कहीं से चरती हुई नन्दिनी वहाँ [ उसके मूत्र से आँखों को पोंछ कर सामने से घोड़ा चुराकर ले जाते हुए इन्द्र को हो उठे और बाण प्रक्षेप से इन्द्र की बाँह को बेधकर इन्द्रध्वज को काट डाला । द्ध होकर इन्द्र ने रघु पर वज्र चलाया, परन्तु उससे आहत होकर भी रघु युद्ध नहीं हुए । उनकी इस बहादुरी पर प्रसन्न होकर इन्द्र बोले- 'इतने कठोर मेरे म्हारे सिवाय दूसरे किसी ने भी सहन नहीं किया था इसलिए घोड़े को छोड़कर ई वर माँगो ।' रघु ने कहा - 'यदि आप घोड़ा नहीं देना चाहते तो मेरे पिताजी मैध यज्ञ नहीं करके भी उसके फलभागी हों यह वर दें।' इन्द्र 'तथास्तु' कहकर गये। बाद में राजा दिलीप ने रघु जैसे वीर पुत्र को छाती से लगाकर प्यार : उन्हें राजगद्दी पर बैठा कर तपोवन चले गये ।
चतुर्थ सर्ग
एक दिन दिग्वि
ओर चल पड़े ।
की राज्यशासन-प्रणाली से अत्यन्त प्रभावित होकर थोड़े ही दिनों में सारी प्रजा भूल सी गई । न्यायपूर्वक प्रजापालन करते हुए उनके गुणों से आकृष्ट होकर र सरस्वती दोनों ही रूपान्तर ग्रहण कर उनके पास आ गयीं । की भावना से महाराज रघु सेनाओं को सजाकर पूर्व दिशा की राजाओं को धर्षित करते हुए वे कलिङ्ग देश की ओर चले कलिङ्गों से घोर आ । अन्त में रघु ने कलिङ्गराज को पकड़ कर उसकी प्राणदान की प्रार्थना मान छोड़ दिया । फिर समुद्र तट के रास्ते से दक्षिण की ओर जाकर पाण्ढयों को बीच के अत्यन्त बीहड़ पर्वतीय रास्तों को पार कर र पारसियों को जीतकर उत्तर दिशा की ओर जाते हुए
।
केरल देश की ओर चले । पहले हूण देश में पहुँचे ।
को भी लड़कर पराजित कर दिया। कम्बोजवासियों ने तो रघु का नाम सुनते ने आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में बड़ी सेना के साथ वे कैलास पर्वत पर चद T पर भी पर्वतीयों के साथ युद्ध करते बहुत से महत्त्वपूर्ण स्थानों को जीत कर
पेश्वर की ओर बढ़ चले । परन्तु जब वह उनके तेज को नहीं सहन कर सका