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________________ संक्षिप्त कथासार प्रथम सर्ग भद्दाराज दिलोप ने एक नयनानन्दजनक पुत्र के बिना सारे जगत को ही समझ कर अपनी धर्मपत्नी सुदक्षिणा के साथ गुरु वसिष्ठ जी के पास जाकर क 'मगवन् ! आपकी दया से सब आनन्द है किन्तु आपकी पुत्रवधू इस सुदक्षि सन्तति-विहीन देखकर राज्यलक्ष्मी मी मुझे अच्छी नहीं लगती। इस संसार बाने पर मेरे पितर लोग पिण्टरहित होकर निराश हो जायेंगे। प्रभो! शोकाकुल देखकर आपको क्या दया नहीं आती ' वसिष्ठजी ने सन्तति-निरोध का रहस्य राजा से कहा-'पूर्व मन्म में इन्द्र का उपस्थान कर लौटते समय आपने अपनी ध के पास आने की त्वरा से मार्ग में सुरमि (गो) को पूजित नहीं कर अप किया। अतः उसने शाप दे दिया। इसीलिए आपको सन्तति नहीं होती। सुः अमी पाताल चली गई है किन्तु उसकी पुत्री नन्दिनी यहीं है। उसकी आरा भाप सफल-मनोरथ हो सकते है।' द्वितीय सर्ग .... . - गुरु वसिष्ठजी की आज्ञा से महाराज दिलीप नन्दिनी गौ की सेवा करने परिचर्या करते-करते महाराज दिलीप के इक्कीस दिन बीत गये। एक दिन दि माक्त का परीक्षा करने के लिए कैलास की गुफाओं में घुसकर मायानिर्मित (बनाव से आक्रान्त होकर नन्दिनी बहुत जोर से चिल्ला उठी। उसकी करुण आवाज सुन ही उसको मारने के लिए राजा दिलीप तरकस से बाण निकालने लगे, इतने 'बोला-'हे राजन् ! भगवान् शङ्कर की दया से आप मेरा एक भी बाल बाँका सकते।' इस बात को सुनकर बाजा ने कहा-'हे मृगेन्द्र ! मगवान् शङ्कर वसिष्ठजी दोनों ही मेरे पूज्य है। दोनों का आदर करना मेरा कर्तव्य है। इस नन्दिनी को छोड़कर मेरे ही शरीर से उन अपनी भूख मिटा लो।' यह नन्दिनी ने कहा-'भद्र ! गुरु की दया से मुझ में जो तेरी अटूट भक्ति है उस ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। बर माग' दिलीप ने कहा-'मातः ! मुझे वीर पुत्र 'तथास्तु' कहकर 'मेरा दूध पीओ' रेती उसने आज्ञा दी और गोदुग्ध पान दक्षिा गर्भवती दुई
SR No.009567
Book TitleRaghuvansh Mahakavyam
Original Sutra AuthorKalidas Mahakavi
AuthorBramhashankar Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size49 MB
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