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( ६३ ) (१०।२१), शतक्रतु इन्द्र ( १७।१०४ ) आदि के उल्लेख उनके औपनिषदिक ज्ञान का आभास कराते हैं। वैदिककर्मकांड और वैदिक विधियों के अनेक उल्लेख भी 'नैषधीयचरित' में हैं। पुत्रेष्टि, श्येन तथा कारीरीयाग के लिए द्रष्टव्य १७१९४; वैदिक-विधिज्ञान के लिए १७।१७७; दर्श, अग्निष्टोम, पौर्णमास, सोमयाग ( १७११९६ ), सौत्रामणि ( १७११८२ ), सर्वमेघ ( १७।१८६ ), महाव्रत ( १७:२०३ ) आदि के अनेक उल्लेख श्रीहर्ष ने किये हैं।
वेदांगों में शिक्षा ( २१८९), निरुक्तीय व्युत्पत्ति ( दमयन्ती २११८, न्यग्रोध (१११३०, पञ्चशर २२।१८ ) और ज्योतिष ( कवि, बुध १११७ ) के उल्लेख 'नषध' में सहजप्राप्य हैं। उनका छन्दःशास्त्र का ज्ञान पृथक् दिखाया ही जा चुका है।
पुराणेतिहास-ज्ञान के परिचायक तो अनेक उल्लेख हैं। प्रथम सर्ग में बाणपुत्री उषा और श्रीकृष्ण-पौत्र अनिरुद्ध की कथा (१।३२), शिवपूजा ने त्यक्त केतकपुष्प ( १९७८), मदन-दहन ( ११८७ ), समुद्रान्तर्गत मनाक (१।११६),
और वामनावतार (११७२४ तथा ५।१३० ) के संकेत हैं। प्रलय-वेला में विष्णूदरगत मार्कण्डेय का कई स्थानों पर उल्लेख है ( २।९१, १०१३०, १२॥ ९५, २११९४ ) राहु द्वारा चन्द्र-ग्रास भी कई स्थानों पर संकेतिक है ( १९६, ४।६४, ६५, ७१, ७२, १२।९४, २२६६६, १३६, १४८ )। अगस्त्य द्वारा समुद्रपान (४।५१, २२।६७), प्रणाम करते विन्ध्याचल का अगस्त्य की प्रतीक्षा में झुका रहना ( ५।१३० ), दधीचिकथा ( ५।१११ ), पृथुचरित (११।१० १२।२०), पारिजात-हरण (१०।२४ ) ऐरावत को दुर्वासा का शाप । १६॥३१), संजीवनी विद्या द्वारा कच का पुनर्जीवन ( १९।१५ ), शर्करागिरि और अमृत-मन्थन ( २१११३९ ), इत्यादि पौराणिक संदर्भ यत्र-तत्र 'नैषध' में हैं। विष्णुपूजा-प्रसंग ( २१ सर्ग ) में रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि के अनेक प्रसंग हैं।
यत्र-तत्र अन्य शास्त्रों के संदर्भ भी पर्याप्त हैं। अर्थशास्त्र ( ४।८१ 'पुष्पैरपि न योद्धव्यं किं पुननिशतैः शरैः' ), धर्मशास्त्र ( १९७, ९८१, ८२, १५१, ११।९२, १४६६८, १५।६४, २१।१२, २०२०) के अनेक नियमों