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का संकेत हैं । आयुर्वेद-ज्ञान के सूचक हैं-सांक्रामिक रोग का चिकित्सकों में प्रविष्ट हो जाना ( ३.११ ), सर्पदंशचिकित्सा ( ४.३३ ), ताप-शान्ति के निमित्त नलद ( खस ) का सुश्रुत और चरक द्वारा अनुमोदित प्रयोग (४:११६ ) । धनुर्वेद से श्रीहर्ष का अच्छा परिचय प्रतीत होता है, द्रष्टव्य ३६१२६, १२७, १०।११७, ११९, २११५८ । राजनीति शास्त्र ( ११३, २०१३३ ), और संगीत विद्या ( ११५२, ११।६, १२।१६, १५:१६ १७, १८.१३, २१:१२४, १२५, १२७ में नृत्य, गान, वाद्य के संकेत ) का संदर्भ है ही । कामशास्त्र के तो श्रीहर्ष विज्ञाता ही थे, अष्टादश सर्ग तो इसका पूर्ण परि. चायक है ही, कामदशा (३।१०१,११४) कामज्वर (४।२) आदि के वर्णन भी हैं । ऐसी कामक्रीडाओं का वर्णन उन्होंने किया है, जिनका ज्ञान न तो महाकवियो को है और न पासुलाओं-स्वरविहारिणियों को-- महाकदिभिरप्यवीक्षिताः पांसुलाभिरपि ये न शिक्षिताः । ( १८।२९)।
दोष—इतने ज्ञानी, अगाघ पांडित्य के अभिमानी महाकवि के महाकाव्य में यदि अनेक विद्वानों को दोष भी लगे तो आश्चर्य ही क्या ? आलोचकों की इस दोषदृष्टि को विद्वानों ने इस प्रकार परिगणित किया है ।
(१) भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष की प्रबलता। (२) शास्त्रीय संदर्भो का अतिशय प्रयोग। ( ३ ) क्लिष्ट कल्पनाओं की पुनरुक्तियुता कथावरोधिका अतिशयता । ( ४ ) शृङ्गार की अत्यन्तता और तज्जनित अमर्यादा ।
(५ ) औचित्य का अनिर्वाह । उदाहरणार्थ सभी तरुणियों द्वारा स्वप्न में ही सही ) नल को पति रूप से भजना ( १।३०), भृगु, नारद, व्यास आदि का भी दमयन्ती पर मोह (७।९५ ), स्वयंवर हो जाने पर भी चन्द्रबिन्दु के माध्यम से उसके प्रति इन्द्र का मोह (१५।६४), हरिहरादिदाराओं का सदैव मदन-कारा में वन्दिनी रहना ( १७७६ ) आदि ।
(६) चार्वाकदर्शन के कलि-द्वारा प्रतिपादन से देव-ब्राह्मणादि पर लम्बे माक्षेप ।
(७) लंबे अनावश्यक वर्णन । (८) अप्रचलित तथा नवगठित शब्दों के प्रयोग से उत्पन्न दुरुहता और