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चार्वाकदर्शन -- सत्रहवें सगं ( १७- ८३ ) में कलि के वक्तव्य का आधार चार्वाकदर्शन ही है । प्रायः सभी दर्शन सिद्धांतों का इसमें उपहास है । 'भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः' का तो उद्धरण ही है ( १७।६९ ) ।
सामुद्रिकशास्त्र -- सामुद्रिक ज्ञान का परिचय भी 'नैषध' में अनेक स्थलों पर मिलता है । 'सामुद्रिकसारमुद्रणा' (२।५१) है, पद्म ( १/६५ ), मत्स्य ( १।१०५ ) और वज्र ( २०।७१ ) रेखाएं भी हैं, ऊर्ध्वरेखांकित चरण भी हैं ( १।१८, १३।६ ) ।
तंत्र - श्रीहर्षं तांत्रिक थे, मंत्र-तंत्र के साधक । उनकी चिन्तामणि मंत्र की साधना विख्यात ही है । अनेक तंत्र-परक उल्लेख 'नैषध' में हैं । तंत्र सिद्धि की उपयुक्त अष्टमी - निशा ( ७।२३), शक्ति-सिद्धि की चौदस को रात ( ७ ९७ ), चिन्तामणि मंत्र की साधना विधि और फल ( १४१८७ ) के उल्लेख इसके प्रमाण हैं ।
प्राणिविज्ञान - जल-स्थल और आकाश तीनों के प्राणियों से संबद्ध ज्ञान का उल्लेख 'नैषध' में है । प्रथम सर्ग में अश्व संबंधी वर्णन श्रीहर्ष में शालिहोत्र का ज्ञाता सिद्ध करता है। इसमें अश्व- लक्षण, स्वभाव, गति आदि का श्रेष्ठ चित्रण है । इस प्रसंग पक्षिविज्ञान का परिचायक है । मयूर, कोकिल, उलूक आदि के भी उल्लेख हैं। जलचर मीन से संबद्ध उल्लेख नेत्रों की उपमा के लिए तो हैं ही, मीन - प्रकृति का भी निरीक्षण मिलता है ( ४।३५ ) ।
अन्य शिल्प ज्ञान - रत्नविद्या ( १०/९४ ), चित्रकला ( २०।१३६ ), शकुनज्ञान ( ५।१३४, १०।९१ ) तथा षोडश सर्ग में पाककला का ज्ञान भी संकेतित हो जाता है। वस्तुतः लोक-जीवन में श्रीहर्ष की गहरी पैठ थी । लोक-जीवन के व्यवहार और रंतियों के उल्लेख 'नैषध' में प्राप्त हैं । द्रष्टव्यदीढ लगना और उसका उपाय (२०२६), काजल बनाने की रीति ( २२ । ३१) |
वेद-वेदांग पुराणेतिहासादिका ज्ञान - जहाँ तक इनका प्रश्न है, श्रीहर्ष इस ज्ञान के अधिकारी विद्वान् । वैदिक हिरण्मयपुरुष रूप हंस ( १।११७ ), ब्रह्मानन्द (२1१ ), वेदपाठ ( ३।७५, १०६६, १२।५२ ) आदि विवरण श्रीहर्ष के वेद-संबद्ध इान के परिचायक हैं । श्रवण, मनन, विधि निदिध्यासन ( ३८२ ), आनन्दरूप ब्रह्म ( ५१८ ), देवानन अग्नि