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तिरिक्त भी आधार हो सकता है। चतुर्वगफल-प्राप्ति का उसे साधक होना चाहिए; उसका नायक चतुर और उदात्त हो। नगर समुद्र, पर्वत, ऋतुएं, चन्द्र-सूर्य, उद्यान, जलक्रीडा, मधुपान, रत, उत्सव, वियोग- संयोग का वर्णन होना चाहिए; युद्ध, मंत्रणा, दूतप्रयाणादि द्वारा चरित नायकों का उदय दिखाया जाना चाहिए। वह अलंकारों से सज्जित हो, संक्षिप्त न हो, रस. भाव के नैरन्तर्य से परिपूर्ण हो। अनतिविस्तीर्ण, कर्णप्रिय छन्दों से युक्त, संघिसमन्वित, अनेक लोकरंजक वृत्तान्तों से पूर्ण काव्य श्रेष्ठ और चिरस्थायी बनता है। 'काव्यालंकार'-रचयिता भामह ने संक्षेप में लगभग ये ही बातें बतायी हैं:
सर्गबन्धो महाकाव्यं महतां च महच्च यत् । अग्राम्यशब्दमयं च सालङ्कारं सदाश्रयम् ॥ मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदयश्च यत् । पञ्चमिः सन्धिभिर्युक्तं जातिव्याख्येयमृद्धिमत् ॥ चतुर्वर्गाभिधानेऽपि भूयसार्थोपदेशकृत् ।
युक्तं लोकस्वभावेन र संश्च सकलैः पृथक् ॥ रुद्रट ने अपने 'काथालंकार' (१६।५-१९ ) में इन्हीं लक्षणों को विस्तार से कहा है । 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' में विद्यानाथ ने महाकाव्य का लक्षण बताते हुए कहा है:
नगराणवशलतुचन्द्रार्कोदयवर्णनम् । उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवाः ॥ विप्रलम्भो विवाहश्च कुमारोदयवर्णनम् । मन्त्रद्यूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदया अपि ॥
एतानि यत्र वर्ण्यन्ते तन्महाकाव्यमुच्यते । (प्र० यशो० २।६८-७०) स्पष्ट है कि विद्यानाथ ने दण्डी के लक्षण को लगभग दुहरा दिया है। कुमारस्वामी सोमपीथी ने इसकी व्याख्या में कह ही दिया है-तत्प्रपञ्चस्तु काव्यादर्श द्रष्टव्यः ।
विस्तृतरूप में विश्वनाथ ने महाकाव्य को निरूपित किया है। इस निरूपण में कोई विशेषता कहने से बच नहीं पायी है: