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संभावना यही है कि बाईस सर्ग में ही 'नैषध' पूर्ण है, जितनी भी टीकाएँ प्राप्त हैं, द्वाविंश सर्गात्मिका ही हैं ।
नैषध : संस्कृत-महाकाव्य-परम्परा का गौरव आदिकवि वाल्मीकि रचित आदि महाकाव्य 'रामायण' से जिस संस्कृतमहाकाव्य-परंपरा का समारंभ हुआ, कालिदास के 'रघुवंश' और 'कुमारसंभव', भारवि के 'किरातार्जुनीय' और माघ के 'शिशुपालवध' से जो पुष्ट हुई, श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरित' उस परंपरा का एक गौरव ग्रन्थ है । पुण्यश्लोक निषधनरेश नल के पवित्र चरित्र को आधार बनाकर लिखा गया यह महाकाव्य इस परम्परा की अन्तिम महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है। कहा तो यहां तक गया है कि नैषध-काव्य के संमुख न माघ कवि का काव्य ठहरता है, न भारवि का-'उदिते नैषवे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः ।'
भारतोय आचार्य परम्परा में 'काव्यादर्श' के रचयिता दंडी के अनुसार 'सर्गबंध' महाकाव्य कहा जाता है-'सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते ।' उसके लक्षण उन्होंने इस प्रकार बताये हैं :
आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वाऽपि तन्मुखम् । इतिहासकथोद्भूतमन्यद्वापि सदाश्रयम् । चतुर्वर्गफलोपेतं चतुरोदात्तनायकम् । नगरार्णवशैल चन्द्रार्कोदयवर्णनः । उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवैः । विप्रलम्भविवाहश्च कुमारोदयवर्णनः । मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाम्भुदयैरपि । अलकृतमसंक्षिप्तरसभावनिरन्तरम्। सगैरनतिविस्तीर्णैः श्रव्यवृत्तः सुसन्धिभिः । सर्वत्रभिन्नवृत्तान्तरुपेतं लोकरञ्जनम् ।
काव्यं कल्पोत्तरस्थायि जायेत तदलङ्कृतिः ।। (काव्यादर्श/१४-१९)। अर्थात् महाकाव्य का आरम्भ आशीष, नमस्कार और ( अथवा ) 'वस्तु' के 'निर्देश से होना चाहिए, जिसका आधार कोई ऐतिहासिक कथा हो, यों इतिहासा