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ही नहीं जाती, वह तो भाग्य के हाथ का एक खिलौना मात्र रह जाता हैकरुणोत्पादक । उनका उदात्तचरित्र इस पूर्वकथा में उद्घाटित हो गया है। इसके अतिरिक्त उत्तरचरित्र में नल-दमयन्ती वियोग हो जाता है, यह वर्णन कवि को अभीष्ट नहीं हो सकता; क्योकि विवाहोपरांत नल के द्वारा दमयन्ती का दिया वचन इससे झूठा पड़ जाता । कविने 'असत्यकातर' नल से दमयन्ती को वचन दिलाया है-'नोनिताऽस्मि भक्ती तदित्ययं व्याहरद्वरमसत्यकातरः ।' { नं० १८४९)। मैं ( नल ) तुम्हें (दमयन्ती ) को कभी न छोडूगा। क्या उत्तरचरित्र का वर्णन कर कवि .पने उदात्त नायक को वचन भंग का दोषी बना देता? उत्तररित्र में तो वन में नल ने दमयन्ती का त्याग किया है'जगाका वने शन्ये भामुत्सृज्य दुःखितः ।' ( नलोपाख्यान १०।२९)।
देव वरों का उपयोग 'नैषध' में हुआ है। सामूहिक रूप से दमयन्ती को वर दिया गया था कि तुम्हें अभीष्ट देह-परिवर्तन की विद्या प्राप्त हो-'आप्तुमाकृतिमतो मनीषितां दिया हृदि तवाप्युदीयताम' (नै ० १४।९१ अथवा ९४)। इस वर का उपयोग किया गया है लीलाविलासरता दमयन्ती द्वारा नल को रिझाने के लिए अनेक दिव्यांगनाओं का वेष बना-बनाकर नित्य नवीन दीखते हुए-'रूपवेषवसनाङ्गवासनाभूषणादिषु पृथग्विदग्धताम् । साऽन्यदिव्ययुवतिभ्रमक्षमा नित्यमेत्य तमगाप्नवा नवा । ( नै० १८७४ या ७९ )।
इसी प्रकार वरुण ने नल को वर दिया था कि नल की इच्छानुसार मरुस्थल में भी जल हो सकेगा-'यत्राभिलाषस्तव तत्र देशे नन्वस्तु धन्वन्यपि तूर्णमर्णः ।' (न० १४१८० या ८३) इस वर का उपयोग किया गया है परिहास कुशला सखियों को अपने विलासगृह में रिक्त चुलुक फेंक कर भिगो देने में'तच्चित्रदत्तचित्ताम्यामुच्चोः सिचयसेचनम् । ताभ्यामलम्भि दूरेऽपि नलेच्छापूरिभिर्जलैः॥ वरेण वरुणास्यायं सुलभैरम्भसा भरः । एतयोः स्तिमितीचके हृदयं विस्मगैरपि ॥ (० २०.१२५-१२६ या १२६-१२७ ) ।
हाँ, सम्पूर्ण वरों का प्रयोग इस कथा में नहीं हो पाया है, संभव ही नहीं था। जहाँ तक कलि कलह का प्रश्न है, यह प्रसंग उल्लास, आनन्द का प्रसंग नहीं है; यह तो 'पाप-वथा' है। 'कथाऽपि खलु पापानामलमश्रेयसे'-'पापकथा'
३ न० भू०