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कथन को प्रमाण मानते हैं - 'महाभारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसत्वान्नायकानुदयवर्णनेन रसभङ्गसम्भवाच्च काव्यस्य च सहृदयाह्लादनफलत्वात्रोत्तरचरित्रं श्रीहर्षेण न वणितमित्यादि ज्ञातव्यम्' ।
श्रीहर्ष ने नल के उत्तर चरित्र का वर्णन इसलिए नहीं किया कि वह नीरस है, उसमें नायक की बुरी दशा का वर्णन है, उसके वर्णन से रस-भंग होता और काव्य सहृदयों के आह्लाद के निमित्त होता है, उन्हें खेद देने के लिए नहीं । अत एव महाभारत आदि में वर्णित संपूर्ण नल-चरित का उपयोग श्रीहर्ष ने नहीं किया ।
'साहित्य विद्याधरी' में भी कुछ ऐसा ही कहा गया है—'ननु महाभारते नलोपाख्यानस्यैव वक्तुमुचितत्वात् श्रीहर्षेणोपाख्यानैकदेशे काव्यविश्रान्तिः कथं कृता, सकलनलोपाख्यानस्यैव वक्तुमुचितत्वात् । सत्यम् । काव्यं हि सहृदयहृदयानामावर्जंकं भवति । हृदयावजंकं च काव्यं स्वरसेन क्रियते । तत्र च पुनर्रतिह्ये, एकदेशे सरसत्वं दृश्यते । तत्रैवानेनापि विश्रान्तिः कृता ।' अर्थात् काव्य होता है सहृदयों की मनस्तुष्टि के निमित्त, जो स्व-रस से ही सम्पन्न होती है, यह स्वरसता जितना कथांश वर्तमान 'शेषघ' में है, उस कथा के एक देश में ही है, सो श्रीहर्ष ने यहीं अपना काव्य पूर्ण कर दिया । कीथ भी 'नैषध' के उतने विस्तार को विश्वसनीय मानते हैं ।
श्री भट्टाचार्य के तीनों अपूर्णता के आधारों का अब खण्डन कर दिया गया है । प्रथम मत के खण्डन में कहा गया है कि 'नैषध' चरित - काव्य मले ही हो परन्तु श्रीहर्ष को केवल 'पुण्य श्लोक' नल का आनन्ददोल्लास स्वकाव्य में वर्णित करना था, क्योंकि उनका 'नैषधीयचरित' महाकाव्य 'शृङ्गारभङ्गया' ( नं० १।१४५ ) 'चारु' है । शृंगारसप्रधान काव्य में प्रधानता शृङ्गार-प्रसंग को ही देनी होती है, जिससे सहृदयाह्लाद हो । इसके निमित्त नल-दमयन्ती - उल्लास - विलास तक का ही उपाख्यान उपयुक्त है, उत्तरचरित्र उपयुक्त नहीं, उससे खिन्नता आयेगी । श्रृंगार के वियोग संयोग — दोनों पक्षों का मर्मस्पर्शी चित्रण इतने अंश में भलीभांति हो गया है । इसके अतिरिक्त यह नल-कथा नल को महत्त्व देती है, उत्तरचरित्र में तो नल की महत्ता रह