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द्वितीयः सर्गः
अन्वयः--भृशतापभृता मया तुषारसारवान् मरुत् भवान् सादि, धनिनां सन्निधिः इतरः पुनः सतां गुणवरसन्निधिः एव ।
हिन्दी-(वियोगज्वर से ) अत्यंत संतप्त मैंने हिम के श्रेष्ठ भाग से यक्त ( अत्यंत शीतल ) वायु आपको प्राप्त कर लिया; धनवानों की अन्य घनद्रव्य आदि अच्छी निधि ( कोष ) हो सकते हैं, सज्जनों को सन्निधि ( श्रेष्ठ कोष ) तो फिर गुणियों से समागम ही है।
टिप्पणी--आशय यह कि विरहज्वर से पीडित नल को हंस की प्राप्ति शीतलतम समीर के समान सखदायिनी प्रतीत हुई, उन्हें हंस क्या मिला; बहुत बड़ी निधि मिल गयी। निधियों नौ मानी जाती हैं-(१) महापद्म, (२) पद्म , ( ३ ) शंख, ( ४ ) मकर, (५) कच्छप, (६) मुकुन्द, (७) कुन्द, (८) नील और (९) खर्व-'महापद्यश्च पद्मश्च शङ्खो मकरकच्छपौ। मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव ॥' मल्लिनाथ ने यहां दृष्टांत अलंकार का निर्देश किया है, चंद्रकलाकार ने रूपकद्वय की संसृष्टि । किन्हीं टीकाकारों ने यहाँ समासोक्ति मानी है, विद्याधर उसे अमान्य ठहराते हैं, क्योंकि यहाँ रूपक और अर्थातरन्यास अलंकार हैं और अर्थान्तर की प्रतीति रूपक से ही होती है ।।
शतशः श्रुतिमागतैव सा त्रिजगन्मोहमहौषधिर्मम । अधुना तव शंसितेन तु स्वदृशैवाधिगतामवैमि ताम् ॥ ५४॥
जीवात--शतश इति । त्रिजगतः त्रैलोक्यस्य मोहे सम्मोहने महौषधिः सहौषधमिति रूपकम् । सा दमयन्ती शतशो मम श्रुति श्रोत्रमागतैव अधुना तव शंसितेन कथनेन तु स्वदृशा मम दृष्टय वा घिगतां दृष्टाम मि साक्षाद् दृष्टां मन्ये । आप्तोक्तिप्रामाण्यादिति भावः ।। ५४ ॥
अन्वयः-त्रिजगन्मोहमहौषधिः सा शतश: मम श्रु तिम् आगता एव, अधुना तव शंसितेन तु तां स्वदृशा एव अधिगताम् अवै मि ।
हिन्दी-त्रिलोकी का संमोहन करने की उत्तम ओषधि (श्रेष्ठ जड़ी बूटीसंमोहिनी विद्या ) वह ( दमयंती) सैकड़ों वार मेरे कानों में आयी हो है, इस समय तुम्हारे इस वर्णन द्वारा तो वह मुझे अपने नेत्रों से दीख रही ही प्रतीतः हो रही है।