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नैषधमहाकाव्य म्
टिप्पणी-जैसा कि पहिले प्रथम सर्ग में (श्लोक सं. ४४) कहा जा चुका है कि नल ने अनेक बार दमयंती को चर्चा सुनी थी, हंस ने तो उसका ऐसा सजीव शब्दचित्र उपस्थित किया कि नल को लगा कि वह दमयंती को प्रत्यक्ष देख रहा है । रूपक और भाविक अलंकार अथवा दोनों की संसृष्टि । 'काव्यप्रकाश' के अनुसार- 'प्रत्यक्षा इव यद्भावा: क्रियन्ते भूतभाविनः, तद् भाविकम्' ॥ ५४ ॥
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अखिलं विदुषामनाविलं मुहृदा च स्वहृदा च पश्यताम् । सविधेऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी वदनालङ, कृतिमात्रमक्षिणी ॥ ५५ ॥ जीवातु-- अथ स्वदृष्टेरप्याप्तदृष्टिरेव गरीयसीत्याह- अखिलमिति । सुहृदा आप्तमुखेन स्वहृदा स्वान्तःकरणेन च सुहृद् ग्रहणं तद्वत्सुहृदः श्रद्धेयत्वज्ञापनार्थमखिलं कृत्स्नमर्थमनाविलमसन्दिग्धम् अविपर्यस्तं यथा तथा पश्यतामवधारयतां विदुषां विवेकिनां सविधे पुरोऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी असूक्ष्मार्थ - दर्शिनी 'सुप्सुपे 'ति समासः । अक्षिणी वदनालङ्कृतिमात्रं न तु दूरसूक्ष्मार्थदर्शनोपयोगिनीत्यर्थः ।। ५५ ।।
अन्वयः -- सुहृदा स्वहुदा च अखिलम् अनाविलम् पश्यतां विदुषां सविधे अपि न सूक्ष्मसाक्षिणी अक्षिणी वदनालंकृतिमात्रम् ।
हिन्दी -- जल, मित्र और अपने मन के माध्यम से समस्त वस्तुजात को असंदिग्ध रूप से देखने वाले विद्वज्जनों की निकटस्थ भी सूक्ष्म वस्तु को न देख सकने वाली आँखें मुख की अलंकृति मात्र हैं ।
टिप्पणी- आँखों के निकटतम होता है काजल, पर वे उसे भी नहीं देख पातीं, तो दूर की वस्तु क्या देखेंगी ? दूर की वस्तु तो आप्त, मित्रों अथवा स्वमनोभावना के माध्यम से ही गोचर होती है, अतः विद्वज्जनों के नेत्र तो बस मुख की शोभामात्र हैं । सूक्ष्म - सार ग्राहिनी वे आँखें नहीं होतीं । हंस प्राप्त है, मित्र है, उसका 'शंसित' विश्वसनीय होना ही चाहिए । भाव यह है कि अप्रत्यक्ष दमयंती को - दूरदेशस्थिता को ये आँखे मित्र के माध्यम से देख • अतिशयोक्ति ।। ५५ ।।
सकती हैं ।
अमितं मधु तत्कथा मम श्रवणप्राघुणकीकृता जनैः । मदनानलबोधनेऽभवत् खग धाय्या धिगधैर्यधारिणः ॥ ५६ ॥