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द्वितीयः सर्गः
बिम्बभावेन सामान्यधर्म्मवत्तया निर्दिष्टाविति दृष्टान्तालङ्कारः । 'यत्र वाक्यद्वये बिम्बप्रतिबिम्बतयोच्यते । सामान्यधर्मः काव्यज्ञः स दृष्टान्तो निगद्यते ॥' इति लक्षणात् ।। १९ ॥
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अन्वयः - तां परं गुणसिन्धोः घराधिपात् उदितां श्रियम् एव अवेहि, वा व्यवधी अपि मृडचूडानिलयां विधोः कलां कः न वेद ?
हिन्दी - हे नल, आप उसे गुणों के सागर पृथ्व पति से समुत्पन्न निश्चय रूप से लक्ष्मी हो समझिए, अथवा अन्तराय होने पर भी महादेव के मस्तक पर जिसका आवास है, उस चंद्र की कला को कौन नहीं जानता ? ( सब ही जानते हैं । )
टिप्पणी-धरती की लक्ष्मी दमयन्ती के विषय में सर्वत्र ख्याति है, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सभी उसके विषय में जानते हैं, जैसे अप्रत्यक्ष महादेव की चूडालया चंद्रकला से सभी परिचित होते हैं, अतः राजा नल भी दमयन्ती के विषय में सब जानते ही होंगे। अधिक कहना व्यर्थ है । विद्याधर के अनुसार यहाँ रूपक और आक्षेप अलंकार हैं, मल्लिनाथ के अनुसार अतिशयोक्ति और दृष्टांत, क्योंकि दमयन्ती को 'भीमभवनोदिता श्री' कहकर -सौन्दर्यातिशय कथन है और 'श्री चंद्रकला' तथा 'भीम महादेव' सामान्य धमं होने से बिम्ब प्रतिविम्ब मात्र से निर्दिष्ट हैं : चंद्रकलाकार ने रूपक- दृष्टांत की संसृष्टि मानी है ॥ १९ ॥
चिकुरप्रकरा जयन्ति ते विदुषी मूर्द्धनि सा विर्भात यान् । पशुनाऽप्यपुरस्कृतेन तत्तुलनामिच्छतु चामरेण कः ॥ २० ॥
जीवातु - चिकुरप्रकरा इति । चिकुरप्रकराः केशसमूहाः जयन्ति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते, यान् वेत्तीति विदुषी विशेषज्ञा 'विदेः शतुर्वसुः' 'उगितश्चे' ति ङीप् ‘वसोः सम्प्रसारणम्' । सा दमयन्ती मूर्द्धनि विर्भात, विद्वद्गृह एव सर्वस्याप्युत्कर्ष हेतुरिति भावः । अतएव पशुना तिरश्चा चमरीमृगेणाप्यपुरस्कृतेनानादृतेन चामरेण चमरीपुच्छेन सह तत्तुलनान्तेषां चिकुराणां समीकरणं क इच्छतु ? न कोऽपीत्यर्थः । सम्भावनायां लोट् । अत्र तुलनानिषेधस्यापुरस्कृतपदार्थहेतुकत्वात्पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गम्, हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतमिति लक्षणात् ॥ २० ॥