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द्वितीयः सर्गः
हिन्दी--कुतूहलरूप अमृतलहरियो में डूबते राजा के मानस को कर्णविवर रूप कलसों का सहारा देता मानसरोवर-प्रिय वह ( हंस बोला।
टिप्पणी-राजा का मन, मानस-मानसरोवर है, विचित्र है कि 'मानसर' ही लहरियों में डूब रहा है। डूबते व्यक्ति को बचाने के लिए कलसों-घड़ों का सहारा अपेक्षित होता ही है। भाव यह है कि राजा के कुतहल को शांत करता हंस बोला। मल्लिनाथ के अनुसार इस श्लोक में उपमा रूपक की संसृष्टि है, विद्याधर ने अनुप्रास-रूपक का निर्देश किया है और 'अमृत' को "श्लिष्ट' कहा है। चंद्रकलाकार ने 'मानस' की द्विरुक्ति के आधार पर कदाचित् यमक का भी उल्लेख किया है। विरोधाभास भी है-'नृपमानस' में 'मानस' का अर्थ 'सरोवर' न करके परिहारार्थ 'मन' करने से ॥ ८ ॥
मृगया न विगीयते नृपैरपि धर्मागममर्मपारगैः। स्मरसुन्दर ! मां यदत्यजस्तव धर्मः स दयोदयोज्ज्वलः ॥९॥
जीवातु-मृगयेति । धर्मागममर्मपारगर्धर्मशास्त्रतत्त्वपारदशिभिरिव 'अन्तात्यन्ताध्वदूरपारसर्वानन्तेषु डः' इति गमेर्डप्रत्ययः । नृपम॒गया आखेटो न विगीयते न गह्यते । तथापि हे स्मरसुन्दर ! मामत्यज इति यत् स त्यागस्तव दयोदयेनोज्ज्वलो विमलो निरुपाधिक इति यावत् धर्मः सुकृतम् । न केवलमाकारादेव सुन्दरोऽसि, किन्तु घमंतोऽपीति भावः ॥ ९ ॥ ____ अन्वयः-धर्मागममर्मपारगैः नृपः अपि मृगया न विगीयते, स्मरसुन्दर ! यत् माम् अत्यजः सः तव दयोदयोज्ज्वल: धर्मः ।
हिन्दी--धर्मशास्त्रों के ममं में पारंगत नृप भी आखेट की निन्दा नहीं करते, हे काम के समान सुन्दर ( अथवा 'स्मर + सुन्दर' पदच्छेद करके 'हे सुन्दर, स्मरण कर' । जो तूने मुझे छोड़ दिया, वह तेरा करुणा की उत्पत्ति से उज्ज्वल धर्म है।
टिप्पणी- क्षत्रियों के लिए मृगया स्वामाविक है, वह निन्दनीय नहीं होती, करणीय ही मानो जाती है। राजा ने जो हंस का आखेट नहीं किया, यह उसके करुणापरायण होने का सूचक है। राजा तन से ही सुन्दर नहीं, अंतःकरण से भी शुद्ध था । काव्यलिंग अलकार ॥ ९ ॥