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नवमहाकाव्यम् अवलस्वकुलाशिनो झपानिजनीडp मपीडिनः खगान् । अनवद्यतृणादिनो मृगान् मृगयाऽघाय न भूभृतां घ्नताम् ।। १०॥
जीवातु-ननु प्राणिहिंसा कथं न विगीयते तत आह-अबलेति । अबलस्वकुलाशिनो झपाः 'दुर्वलस्वकुलवा तिनो मत्स्या' इति प्रसिद्धिः, निजनीड. द्रुमपीडिनो विण्मोक्षफलभक्षणादिना स्वाश्रयवृक्षपीडाकरान् खगान् अनवद्यतृणादिनः अनपराधितृणहिंसकान् मृगान्, 'अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमविता' इति मनुस्मृत्या तरुतृणादीनामपि प्राणित्वात्तद्धिसा पीडैवेति भावः । सर्वत्रापि ताच्छील्ये णिनिप्रत्ययः, घ्नतां हिंसतां भूभृतां मृगया अघाय पापाय न भवति । तद्वधस्य दण्डरूपत्वात् प्रत्युताकरणे दोष इति भावः ॥ १० ॥
अन्वयः--अबलस्वकुलाशिनः ज्ञषान्, निजनीडद्रुमपीडिनः खगान्, अनवद्य. तृणादिनः मृगान् घ्नतां भूभृतां मृगया अघाय न ।
हिन्दी-अपने कुल के निर्बल मीनों को खा जाने वाले मत्स्यों, अपने ही घोंसले-वृक्ष को गन्दा करनेवाले पक्षियों और निरपराध तृणांकुरो को खाने वाले पशुओं को मारने वाले पृथ्वीपालकों की मृगया पापनिमित्तिका नहीं होती।
टिप्पणी-कहावत है--'छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है'। पक्षी भी जिस वृक्ष पर घोंसला बनाते हैं, उसके फल-फूल खा जाते हैं, बीट आदि करके गन्दा करते हैं। बेचारे तृण, घास आदि का क्या दोष है कि मृगादि उनका विनाश किया करते हैं । पृथ्वीपालक यदि ऐसे कुलघाती, देशघाती और निर्दोष-हंताओं को दंड देता है, तो उचित करता है। ये सब राजाओं के मृगया-विलास का औचित्य प्रमाणित करते हैं, किन्तु नल ने सबसे बड़ा धर्म अपनाया--प्राणिमात्र पर दया, करुणा, क्षमा । विद्याधर के अनुसार यहाँ अनुप्रास, कायलिंग, क्रियादीपक अलंकार हैं। चंद्रकलाकार ने पदार्थहेतुक काव्यलिंग और अप्रस्तुतप्रशंसा का संकर माना है ॥ १० ॥
यदवादिषमप्रियन्तव प्रियमाधाय नुनुत्सुरस्मि तत् । कृतमातपसंज्वरं तरोरभिवृष्यामृतमंशुमानिव ॥ ११ ॥