________________
प्रथमः सर्गः
१०५
मार्ग से मनुष्य का अत्यन्त पराधीन चित्त भी उसी प्रकार अनुगमन करता है, जिस प्रकार तिनका वात का अनुगमन ।
टिप्पणी--विरही राजा का मन भी कुतूहलाक्रांत क्यों हुआ, इसका उत्तर इस अर्थान्तरन्यास द्वारा दिया गया। यह निधाता का नियत लेख था कि हंस के माध्यम से नल-दमयन्ती के संदेशों का आदान-प्रदान हो और उनका विवाह हो, इसी कारण विह्वल राजा का मन भी विधि-विधान-वश स्वर्णहंस के प्रति कुतूहलाक्रांत हुआ । उपमा ॥ १२० ॥
अथावलम्ब्य क्षणमेकपादिकां तदा निदद्रावुपपल्वलं खगः। सतिर्यगावजितकंधरः शिरः पिधाय पक्षण रतिक्लमालसः॥ १२१ ॥
जीवातु-चिकीर्षितार्थे देवानुकूल्यं कार्यतो दर्शयति-अथेति । अथ नलदृष्टिप्राप्त्यनन्तरं रतिक्लमालसः स खगो हंसः तदा नलकुतूहलकाले क्षणमेकाः पादो यस्यां क्रियायामित्येकपादिका एकपादेनावस्थानं मत्वर्थीयष्ठन्प्रत्ययः, 'तद्धितार्थे'त्यादिना सङ्ख्यासमासः, 'यस्येति' लोपस्य स्थानिवद्भावेन तादूप्याभावान्न पादः पदादेशः, तामेकपादिकामवलम्ब्य तिर्यगावजितकन्धर। आवत्तितग्रीवः सन् पक्षण शिरः पिघाय उपपल्वलं पल्वले निदद्रौ सुष्वाप । स्वभावोक्तिरलङ्कारः ‘स्वभावोक्तिरलङ्कारो यथावद्वस्तुवर्णनम्' इति लक्षणात् ।।
अन्वयः--अथ तदा रतिक्लमालसः स खगः एकपादिकाम् प्रबलस्य तियंगावर्जितकन्धरः ( भूत्वा ) पक्षेण शिरः पिघाय उपपल्वलं क्षणं निदद्रौ ।
हिन्दी-तदनन्तर उस समय सुरतखेद से शब्द कर वह पक्षी ( हंस ) एक पैर के सहारे खड़ा हो थोड़ी-सी टेढ़ी गरदन करके पंख से शिर ढककर सरोवर के निकट क्षण भर को सो गया।
टिप्पणी-पक्षिस्वभाव का वर्णन। मल्लिनाथ के अनुसार स्वभावोक्ति और विद्याधर के अनुसार जाति अलंकार ॥१२१॥
मनालमात्मानननिर्जितप्रभं हिया नतं काञ्चनमम्बुजन्म किम् । अबुद्ध तं विद्रु मदण्डमण्डितं स पीतमम्भःप्रभुचामरञ्च किम् ? ॥१२२ ॥ जीवातु-सनालमिति । स नलः तं निद्राणं हंसम् आत्माननेन निजितप्रभं