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प्रथमः सर्गः
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वन में आकर छिपे समुद्र के रूप में सरोवर की उद्भावना सरोवर की निमलता
और गंभीरता की द्योतक है । 'प्रकाश'-कार ने यहाँ लुप्तोत्प्रेक्षा, मल्लिनाथ ने उत्प्रेक्षा तथा चंद्रकलाकार ने समोसोक्ति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा के संकर का निर्देश किया है। विद्याधर के अनुसार यहाँ अनुप्रास-अतिशयोक्ति-समासोक्ति हैं। यहाँ से ११६वें श्लोक तक सरोवर का वर्णन है ।। १०७॥
पयोनिलीनाभ्रमुकामुकावलीरदाननन्तोरगपुच्छसच्छवीन् । जलार्द्धद्धस्य तटान्तभूमिदो मृणालजालस्य निभाद् वभार यः ॥१०८॥
जीवातु-यदुक्तं धनमादायेति, तदेवात्र सम्पादयति नवभिः श्लोकः पय इत्यादिभिः । यस्तडागः जलेनार्द्धरुद्धस्य अर्द्धच्छन्नस्य तटान्तभूमिदस्तटप्रान्तनिर्गतस्येत्यर्थः। मृणालजालस्य विसवृन्दस्य निभायाजादित्यपह्नवालङ्कारः, “नि भो व्याजसदृशयोरि'ति विश्वः । अनन्तोरगस्य शेषाहेः, पुच्छेन सच्छवीन् सवर्णान् तद्बद्धवलानित्यर्थः, पयोनिलीनानामभ्रमुकावलीनामैरावतश्रेणीनां रदान् दन्तान् वभार । तत्रैक एवैरावतः, अत्र त्वसंख्या इति व्यतिरेकः । अभ्रमुकामुका इति द्वितीयासमासो मधुपिपासुवत्,'न लोके'त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् 'लषपते'त्यादिना कमेरुकञ्प्रत्ययः ॥१०८॥
अन्वयः-यः जलाद्धंरुद्धस्य तटान्तभूमिदः मृणालनालस्य निभाद् अनन्तोरगपुच्छसच्छवीन् पयोनिलीनाम्रमुकावलीरदान् बभार ।
हिन्दी-जो ( सरोवर ) जल में आधे डूवे, तीर के निकट की धरती से बाहर आये मृणालों के व्याज से असंख्य सौ की पूछ के सदृश जल में छिपे ऐरावतों के दांतो को धारे हुए था।
टिप्पणी-जब तालाव समुद्र-सम था तो उसमें उसके अनुरूप सामग्री भी अपेक्षित है, अतः यहाँ ऐरावतों की संभावना की गयी मृणालजाल में । समुद्र से तो एक ही ऐरावत निकला था, यहां 'अभ्रकामुकावली' है। ऐसा लगता है कि समुद्र में अनेक ऐरावत थे, मंधन में एक निकाल लिया गया, शेष की रक्षा के लिए समुद्र तालाब बनकर वन में आ छिपा । मल्लिनाथ के अनुसार अपह्नव और व्यतिरेक, विद्याधर के अनुसार अपह नुति । चंद्रकलाकार ने यहां उपमाकैतवापह नुति का संकर माना है ॥१०८॥