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नैषधमहाकाव्यम्
हिन्दी--वन में ( शुभ्र ) कलियों से युक्त काले रंग के अगस्त्य वृक्ष को राजा ने काले पाख में हुए चंद्रकला-क्षय के कूट ( व्याज, मिस ) से खाये विषु ( चंद्र ) की कलाओं का वमन करता सिंहिकापुत्र गहु समझा।
टिप्पणी-अगस्त्य वृक्ष के पत्ते काले होते हैं, परन्तु कलियां उज्ज्वल शुभ्र, इसी कारण वृक्ष में राहु की और कलियों में चन्द्रकलाओं की संभावना की गयी है। राजा के मन में अगस्त्यवृक्ष को देखकर डर-सा लगा उसे दुष्ट ग्रह राहु समझकर । 'प्रकाश'-कार ने सिंहिका-पुत्र का अर्थ सिहिनी का जाया सिंह करके यह भी कल्पना की है कि वन में खाये गये किसी खरगोश आदि शुभ्र पशु को उगलता यह सिंह है, जिसे देख राजा को डर लगा। वस्तुतः विरही राजा को अगस्त्यवृक्ष कष्टदायक लग रहा था। यह भी माना जा सकता है कि अगस्त्यवृक्ष को राहु रूप में देख राजा तुष्ट हुआ कि अब वियोगियों को संतप्त करनेवाला चंद्रमा तो राहु के डर से सताने को नहीं रहेगा, पर जब उसने देखा कि खाये चंद्र को राहु उगल रहा है, तो पुनः चंद्रभय राजा को हो गया। मल्लिनाथ ने इस पद्य में उत्प्रेक्षा-अपह नुति के संकर का निर्देश किया है, विद्याधर ने उत्प्रेक्षारूपक-अपह नुति-श्लेष के संकर का ।
पुरोहठाक्षिप्ततुषारपाण्डरच्छदा वृतेर्वोरुधि नद्धबिभ्रमाः। मिलन्निमीलं विदधुर्विलोकिता नभस्वतस्तं कुसुमेषु केलयः ॥ ९७ ॥
जीवात--पुर इति । पुरोऽग्रे हठात् झटित्याक्षिप्ता आकृष्टा तुषारेण हिमेन पाण्डराणां छदानां पत्राणां तुषारवत् पाण्डरस्य च्छदस्याच्छादकस्य वस्त्रस्य चावृतिरावरणं येन तस्य नभस्वतो वायोः वीरुधि लतायां नद्धाः अनुबद्धा विभ्रमा भ्रमणानि विलासाश्च यासान्ताः कुसुमेषु विषये केलयः क्रीडाः कुसुमेषु केलयः कामक्रीडाश्च विलोकिताः सत्यस्तं नृपं नलं मिलन्निमीलो मिलनं यस्य तं विदधुः निमीलिताक्षञ्चकु रित्यर्थः । विरहिणामुद्दीपकदर्शनस्य दुःसहदुःखहेतुत्वात् अन्यत्र ( 'नेक्षेतार्क न नग्नां स्त्रीं न च संस्पृष्टमैथुनामि'ति निषेधादिति भावः । ) अत्र प्रस्तुतनभस्व द्विशेषणसामर्थ्यादप्रस्तुतकामुकविरहप्रतीतेः समासोक्तिरलङ्कारः ॥ ९७ ॥ ___ अन्धयः-पुरः ( पुरा ) हठाक्षिततुषारपाण्डरच्छदावृतेः नभस्वतः वीरुधि नद्धबिभ्रमाः कुसुमेषु केलयः तं मिलन्निमीलं विदधुः ।