________________
प्रथमः सर्गः
हिन्दी-सम्मुख ( पहिले ) बलात् तुषार से पांडु हुए पत्ते रूप आवरण (वस्त्र) को खींचने वाले वायु को लता से सम्बन्ध रखने वाले हिलने-डोलने रूप विलास से युक्त फूलों के साथ क्रीडाए देख राजा ने आँखें मंद लीं।
टिप्पणी-'नद्धविभ्रमाः' का 'वि' अर्थात् पक्षियों के भ्रम अर्थात् इधरउघर उड़ते रहने का अर्थ किया जाता है। वायु नायक है और वीरुध-लता नायिका, जिसका पत्र रूप वस्त्र नायक बलात् उतार रहा है, इस संभोग दृश्य को न देखने की इच्छा से लज्जा अथवा विरह के कारण राजा ने आँखें मूंद ली। याज्ञवल्क्य का भी इस विषय में निषेध है कि नग्न अथवा रतिक्रीडा में संलग्न नारी को देखना उचित नहीं है । समासोक्ति अलंकार । गता यदुत्सङ्गतले विशालतां द्रमाः शिरोभिः फलगौरवेण ताम् । कथं न धात्रीमतिमात्रनामितैः स वन्दमानानभिनन्दतिस्म तान् ? ॥९८॥ __जीवातु-गता इति । द्रुमा यस्या धाग्या उत्सङ्गतले उपरि देशे च विशालतां विवृद्धि गताः तां धात्रीम्भुवञ्च उपमातरं वा 'धात्री जनन्यामलकी वसुमत्युपमातृष्वि'ति विश्वः । 'धा कर्मणि ष्ट्रन्नि'ति दधातेः ष्ट्रन्प्रत्ययः । फलगौरवेण फलभरेण सुकृतातिशयेन च हेतुना अतिमात्रं नामितः, प्रह्वीकृतैः, नमित्त्वविकल्पाद्धस्वाभावः । शिरोभिरग्र: उत्तमाङ्गश्च वन्दमानान् स्पृशतो ऽभिवादयमानांश्च तान् प्रकृतान् द्रुमान् अत एव यच्छब्दानपेक्षी स नलः कथं नाभिनन्दति स्म अभिननन्दैवेत्यर्थः। वृक्षाणां क्षेत्रानुरूपफलस्य सम्पत्तिमपत्यानां च मातृभक्तिञ्च को नाम नाभिनन्दतीति भावः । अत्रापि विशेषणसामर्थ्यात् पुत्रप्रतीतेः समासोक्तिरलंकारः ॥ ९८ ॥
अन्वयः--सः यदुत्सङ्गतले द्रुमाः विशालतां गता फलगौरवेण अतिमात्रनामित. शिरोभिः तां धात्री दन्दमानान् तान् कथं न अभिनन्दतिस्म ?
हिन्दी--वह राजा जिसकी गोद में पलकर वृक्ष बड़े हुए, फलभार से अतिश्य नम्र शिर करके ( सिर झुका ) उस अपनी पालन करने-हारी धाय. माँ ( धरती ) की वंदना करते उन वृक्षों का अभिनन्दन क्यों न करता ? ( अथवा यह अर्थ भी कि राजा ने (विरही होने के कारण कुछ भी मला न प्रतीत होने से ) अभिनन्दनीय वृक्षों का भी अभिनन्दन नहीं किया ।)