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नषधमहाकाव्यम् पत्तिस्तावदेकोऽलङ्कारः। 'एकस्य वस्तुनो भावाद्यत्रवस्त्वन्यथा भवेत् । कैमुत्यन्यायतः सा स्यादर्थापत्तिरलक्रिया' इति लक्षणात् तनोश्छायेवच्छायेत्युपमा छाययोरभेदाध्यवसायादतिशयोक्तिः । एतत्त्रितयोपजीवनेनालङ्घयत्वे तनुच्छायताया हेतुत्वोत्प्रेक्षा सङ्कीर्णा, सा च शङ्का इति व्यञ्जकप्रयोगाद्वाच्येति।
अन्वयः-अहो, अन्यत् किम्, यदस्त्रतापितः पितामहः अद्य अपि वारिजम् आश्रयति । शङ्के सः नलः स्मरम् आत्मनः तनुच्छायतया लयितुम् न शशाक ।
हिन्दी-अरे, और क्या कहा जाय, काम के बाणों से सताये बूढ़े बाबा ब्रह्मा जी आज भी जलज-कमल का आश्रय लिये रहते हैं । ऐसा लगता है कि वह नल काम के स्वदेह साम्य अथवा देह की परछाई होने के कारण उसे न जीत सका।
टिप्पणी-कामतप्त-काम के सताये बूढ़े ब्रह्मा का भी जलजात कमल में आश्रय लिए रहना यह द्योतित करता है कि काम तो सब को ही सताया करता है, सो नल को भी सता सका । एक दूसरी संभावना भी है कि नल काम को अपनी छाया समझ बैठा और धोखा खा बैठा ।
'जब पितामह भी काम जय में अशक्त रहे, तो नल की क्या गिनती-' यह अर्थापत्ति होने से अर्थापत्ति अलंकार हुआ; 'तनुच्छायतया'-तनुच्छाया के तुल्य, यह उपमा हुई, अतिशयोक्ति भी है, तनुछायता हेतु है, अतः हेतुत्प्रेक्षा भी, जो 'शङ्के' से प्रतीत होती है, अतः अर्थापत्ति-उपमा-अतिशयोक्तिउत्प्रेक्षा की संसृष्टि है । विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा और श्लेष अलंकार है।
'तनुच्छायतया' का तन्वी छाया यस्य भावस्तत्ता तया विग्रह करके यह अर्थ भी होता है--विरह-व्यथित होने से म्लान-शोभा होने के कारण, अन्यमनस्क नल काम को न जीत सका ॥४७॥
उरोभुवा कुम्भयुगेन जम्भितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् । त्रपासरिदुर्गमपि प्रतीर्य सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् ॥४८॥
जीवातु--उरोभुवेति। सा तन्वी भैमी प्रपंव सरित सैव दुर्ग नलसम्बन्धि तदपि प्रतीर्य नलस्य हृदयं विवेशेति यत् तत्प्रवेशनं यत्तदोर्नित्य सम्बन्धात्'