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________________ प्रथमः सर्ग: ३७ स्मरात्परासोरनिमेपलोचनाद् बिभेमि तद्भिन्नमुदाहरेति सा। जनेन यूनः स्तुवता तदास्पदे निदर्शनं नैषधमभ्यषेचयत् ॥३६।। जीवातु-स्मरादिति । परासोमृतात् अत एवानिमेषलोचनान्निश्चलाक्षाद्देवादिति च गम्यते । उभयथापि भयहेतूक्तिः । तस्माद्विभेमीति तद्भिन्नं ततोऽन्यमुदाहरति तत्सदृशं निदर्शयेत्याह सा दमयन्ती यूनः स्तुवता जनेन प्रयोगक; तदास्पदे स्मरस्थाने निदर्शनं दृष्टान्तं नैपचं निषघानां राजानं नलं 'जनपदशब्दात्क्षत्रियाद'। अभ्यषेचयत् स्मरस्य स्थाने तत्सदृश एवाभिषेक्तुं युक्तः स च नलादन्यो नास्तीति तस्मिन् नल उदाहृतेऽनुतपं शृणोतीति रागातिरेकोक्तिः । 'उपसर्गात् सुनोती'त्यादिना अव्यवायेऽपि पत्वम् ।। ३६ ।। अन्वयः--परासोः अनिमेषलोचनात् स्मरात् बिभेमि, तद्भिन्नम् उदाहर--इति सा यूनः स्तुवता जनेन नैषधं तदास्पदे निदर्शनम् अभ्यषेचयत् । हिन्दी-गतप्राण ( अतएव ) अपलक नेत्र कामदेव से मुझे डर लगता है, उसके अतिरिक्त कोई उदाहरण दो--इस प्रकार वह किसी तरुण की प्रशंसा करती सखियों आदि से निषधराज को उस ( काम ) के स्थान में उपस्थापित कराती थी। टिप्पणी-काम देवविशेष होने के कारण अनिमेषलोचन है, किन्तु दमयन्ती उसकी अनिमेषलोचनता उसके मृत होने के कारण मानती है और मृत को देखकर स्वयं डरने का बहाना करती हुई किसी तरुण के सौन्दयं में काम से उपमानित करने का निषेध करके अन्य उदाहरण प्रस्तुत करने का निर्देश करती है, क्योंकि वह जानती है कि सौन्दर्य में काम के अतिरिक्त समान उदाहरण नल ही है, सो स्तोताजन काम के स्थान में नल का ही नाम लेंगे। यह भी रागातिरेक का वर्णन है। गुणकीर्तन-श्रवणरूपा काम की दशा का उपपादन ॥३६॥ नलस्य पृष्टा निषधागता गुणान् मिषेण दूतद्विजवन्दिचारणाः । निपीय तत्कीतिकथामथानया चिराय तस्थे विमनायमानया ॥३७॥ जीवातु-नलस्येति। निषधेभ्य आगता दूताः सन्देशहराः, द्विजा ब्राह्मणाः, वन्दिनः स्तावकाः चारणा देशभ्रमणजी विनः ते सर्वे मिषेण व्याजेन नलस्य
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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