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________________ प्रथम सर्गः एव वह ऐसी बातें कहने लगी जिनसे युधिष्ठिर का क्रोध बढ़े और वे शत्रु-विनाश के लिए उद्योग करें। स्त्री प्ररक शक्ति है-इसका सुन्दर निरूपण यहाँ किया जा रहा है । (२) तकार की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलंकार । घण्टापथ-निशम्येति । अथ द्रुपदात्मजा द्रौपदी द्विपतां सिद्धिं वृद्धिरूपां निशम्य ततस्तदनन्तरम् । ततो द्विषद्भय आगतास्ततस्त्याः । 'अव्ययात्यप' इति त्यप् । अपाकृतीः विकारान् विनियन्तुम् निरोद्धुम् अक्षमा सती नृपस्य युधिष्ठिरस्य मन्युव्यवसाययोः क्रोधोद्योगयोर्दीपिनीः संवर्धिनी: गिरो वाक्यान्युदाजहार जगादेत्यर्थः ॥ ३७ ॥ भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् । तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां निरस्तनारीसमया दुराधयः ॥१८॥ अ०-भवादृशेषु प्रमदाजनोदितम् अनुशासनम् अधिक्षेपः इव भवति । तथापि निरस्तनारीसमयाः दुराधयः मां वक्तुं व्यवसाययन्ति । श-भवादृशेषु = आप (युधिष्ठिर ) जैसे (विद्वानों, बुद्धिमानों) के प्रति । प्रमदाजनोदितम् = स्त्रियों (स्त्रीजनों) के द्वारा कहा गया । अनुशासनम् = उपदेश, निर्देश, आदेश | अधिक्षेपः इव = तिरस्कार ( अपमान) के समान, तिरस्कार जैसा। भवति = होता है। तथापि = तथापि, तो भी, फिर भी, विद्वानों के प्रति अनुशासन का तिरस्कार जैसा होने पर भी। निरस्तनारीसमयाः = छुड़ा दिया है (समाप्त कर दिया है, दूर कर दिया है) नारीजनोचित (स्त्रियों के अनुरूप) आचरण (आचार, मर्यादा, समय) को जिन्होंने (ऐसी), स्त्रियों की मर्यादा को छुड़ा देने वाली । दुराधयः = तीव्र मनोव्यथायें, दुःख देने वाली मानसिक व्यथायें। मां = मुझ (द्रौपदी) को। वक्तुं = बोलने के लिए, कहने के लिए । व्यवसाययन्ति = प्रेरित कर रही हैं, बाध्य (विवश) कर रही हैं। अनु०-आप जैसे (बुद्धिमानों, विद्वानों) के प्रति स्त्रियों के द्वारा कहा गया (किया गया) उपदेश तिरस्कार के समान होता है। तथापि नारीजनोचित (स्त्रियों के अनुरूप) आचार (मर्यादा, शालीनता) को समाप्त कर देने वाली
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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