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किराताजुनीयम् (3 शत्रुओं से) आए हुए (प्राप्त हुए, उत्चन्न)। अपाकृतीः = अपकारों को, (अपकारों से उन्पन्न हुए ) मानसिक विकारों को। विनियन्तुम् = नियमित रखने के लिए, रोकने के लिए। अक्षमा (सती) = असमर्थ होती हुइ । नृपस्य = राजा (युधिष्ठिर) के। मन्युव्यवसायदीपिनीः = क्रोध (मन्यु) और उद्योग ( व्यवसाय) को बढ़ाने वाली । गिरः = वाणी को, वचनों को। उदाजहार % कहा।
अनु०-उसके बाद (=युधिष्ठिर के कथन के उपरान्त) शत्रुओं की समृद्वी को सुनकर, उनसे (शत्रुओं से ) प्राप्त हुए (अपमानों से उत्पन्न) मानसिक विकारों को नियन्त्रित करने में असमर्थ होती हुई द्रौपदी ने राजा (युधिष्ठिर ) के क्रोध और उत्साह को बढ़ाने वाली वाणी (वचन) कहा ।
सं० व्या०-युधिष्ठिरमुखात् शत्रूणां समृद्धिं श्रुत्वा द्रौपदी अतीव क्रुद्धा जाता। द्विषन्द्रयः आगतान् अपमानजन्यविकारान् निरोधुमसमर्था सा नृपस्य युधिष्ठिरस्य क्रोधोद्योगसंवर्धिनी वाणी कथितवती येन सः शत्रूणां विनाशाय प्रयतेत ।
स-आत्मनः जायते या सा आत्मजा ( उपपद समास), द्रुपदस्य आत्मना द्वपदात्मजा (तत्पु०)। न क्षमा इति अक्षमा (नञ् समास)। मन्युश्च व्यवसायश्च मन्युव्यवसायौ (द्वन्द्व समास), मन्युव्यवसाययोः दीपिन्यः इति मन्युयवसायदीपिन्यः, ताः मन्युव्यवसायदीपिनीः (तत्पु०)।
व्या-निशम्य-नि+शम् + क्त्वा-ल्यप् । ततस्त्याः -ततः आगताः इति ततस्त्याः ; ततः (तद्+तसिल = ततस् )+ त्यप् + टाप: तत इति अव्ययम्; 'अव्ययात् त्यप' इति त्यपप्रत्ययः । विनियन्तुम्-वि+नि+यम्+तुमुन् । उदाजहार-उत् +आ+ह+लिट् , अन्यपुरुष, एकवचन ।
टि०-(१) दुर्योधन की समृद्धि का वृत्तान्त सुनकर द्रौपदी की क्रोधाग्नि भड़क उठती है और उसे दुर्योधन के द्वारा किए गए अपमानों का स्मरण हो जाता है। वह शत्रु-विनाश के लिए युधिष्ठिर को प्रेरित करने लगती है । वह भली-भाँति जानती है कि युधिष्ठिर शान्त स्वभाव के व्यक्ति हैं और यदि उन्हें प्रेरित न किया गया तो वे शत्रु-विनाश के लिए कुछ करने वाले नहीं हैं। अत