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________________ ७५ प्रथमः सर्गः किए गये, कहे गये । दुःसहात् = असह्य, अत्यन्त कठोर । तव = तुम्हारे । अभिधानात् = नाम से। अनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः = स्मरण कर लियो है इन्द्र ( आखण्डल) के पुत्र (सूनु) के पराक्रम (विक्रम) को जिसने ऐसा इन्द्रपुत्र (अर्जुन) के पगक्रम को स्मरण कर लेने गला (= स्मरण करके )। सः = वह (व्र्योधन)। नताननः = मुख को नीचे किए हुए, अधोमुख होकर, (भय के कारण) मुँह को नीचे की ओर करके । व्यथते = व्यथित होता है, दुखी होता है। अन०-विषवैद्यों में श्रेष्ठ लोगों के द्वारा उच्चारण किए हुए अत्यन्त असह्य ताj (गरुड) और वासकि (नागराज) के नाम से युक्त मन्त्र-पद (विष दूर करने वाले मन्त्र के पद) से इन्द्र के अनुज (विष्णु) के पक्षी (वाहनभूत गरड) के पाद-प्रहार का स्मरण कर लेने वाले तथा मुख (फण) को नीचे झुकाए हुए सर्प की तरह बातचीत के प्रसङ्ग में लोगों के द्वारा कहे गए अत्यन्त असह्य तुम्हारे नाम से इन्द्र-पुत्र ( अर्जुन) के पराक्रम को स्मरण करके वह (दुर्योधन) अधोमुख होकर (भय के कारण मुँह को नीचे किए हुए) अत्यधिक दुःखी होता है । व्या०–'युधिष्ठिरो वनात् प्रतिनिवृत्तः स्वकीयराज्यं ग्रहीष्यति दुर्योधनस्य अनिष्टं च करिष्यति' इति मनसि विचिन्तयन् दुर्योधनो महत् भयमनुभवति । 'गूढाकारेङ्गितस्य तस्य दुर्योधनस्य भयं त्वया कथ ज्ञातम्' इति प्रश्नस्योत्तर ददाति गुतचरोऽस्मिन् श्लोके । यथा विषवैधेन उच्चारितं तायवासुफिनामसमन्वितं सोढुमशक्यं मन्त्रपदं श्रुत्वा स्मृतगरुडपादप्रझुरः सर्पः भयाकुलः सन् स्वकीयफणां नतीकृत्य दुःखायते तथा परस्परालापप्रसङ्गे तत्रत्यैः जनैः उच्चारितं दुःसहनीयं तव (भवतः ) नामधेयं श्रुत्वा स्मृतार्जुनपराक्रमः दुर्योधनः स्वपराजयाशङ्कया अवनतमुखः सन् दु:खायते । दुर्योधनन्य मुखाकृत्या मया ज्ञातं यत् सः पराजयाशङ्कया महद भयमनुभवति । अत्युत्कटमयदोषादिविकारा दुर्वाराः । नुखाकृतिं दृष्ट्वैव हृदयत्था भावाः ज्ञातुं शक्यन्ते ।
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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