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________________ किरातार्जुनीयम् मन्त्रिणोरैकमत्यात् सम्पत्तयः (राजलक्ष्मीः) निरन्तरं वृद्धिं गच्छन्ति, कदापि नृपं न परित्यजन्ति । हस्तिनापुरे दुर्योधनस्य विषये यत्किञ्चित् मया ज्ञातः तत्सव मया वक्तव्यं भवता च श्रोतव्यम् , कोपश्च न कार्यः इति भावः । स-कुत्सितः सखा सिखा (कर्मधारय )। कुत्सितः प्रभुः किंप्रभुः (कर्मधारय) । सर्वाः सम्पदः सर्वसम्पदः ( कर्मधारय)। व्या०-शास्ति-शास् + लट् + अन्यपुरुष, एकवचन, द्विकर्मक धातु । संशृगुते-सम् + श्रु+लट । रतिं-रम् + तिन् । कुर्वते-कृ+ लटन अन्यपुरुष, बहुवचन । नृपेषु, अमात्येषु और अनुकूलेषु में 'यस्य च मावेन भावलक्षणम्' से सप्तमी है । हितात् में 'आख्यातोपयोगे' से पञ्चमी है । टि०-(१) प्रस्तुत पद्य में राजा ( स्वामी ) और अमात्य (हित चाहने वाले भृत्य ) दोनों को शिक्षा दी गई है । भय की आशंका से हितैषी व्यक्कि को चुप नहीं रहना चाहिए । हितैषी का कर्तव्य है कि वह राजा (स्वामी) के समक्ष हित की बात अवश्य कहे, चाहे वह बात सुनने वाले राजा को कितनी ही अप्रिय लगने वाली हो । भय की आशंका से जो सेवक हित की बात न कहकर चुप रहता है वह निन्दा का पात्र होता है। उसी प्रकार राजा का कर्तव्य है कि वह अपने हितैषी भृत्यों की बातों को सुने, अप्रिय बातो को सुनकर कोप न करे और उन बातों की कदापि उपेक्षा न करे। जो राजा ऐसा नहीं करता वह भी निन्दा का पात्र होता है। तात्पर्य यह है कि अवश्य कहना हितैषी सेवक का कर्तव्य है और अवश्य सुनना राजा (स्वामी) का कर्तव्य है। (२) सर्वसम्पत्सिद्धि रूप कार्य के द्वारा राजा और अमात्य मे ऐकमत्य रूप कारण का समर्थन होने से यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार हैदेखिए मल्लिनाथ | यहाँ कुछ लोग काव्यलिङ्ग अलंकार मानते हैं । (३) संशृणुते के पहले नत्र के न होने से 'अस्थानपदता' दोष है। द्वितीय चरण में 'हितं' पद का अध्याहार आवश्यक होने से 'न्यूनपदता' दोष है। __ घण्टापथ-स इति । यः सखा अमात्यादिः । अधिपं स्वामिनम् । साधु हितम् । न शास्ति नोपदिशति । 'ब्रु विशासि' इत्यादिना शासेदुहादिपाठाद्
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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