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________________ किरातार्जुनीयम् उसी प्रकार गुप्तचर का वचन भी राजा के लिए प्रमाण होता है । जो गुप्तचर सच्ची बातों को छिपाकर राजा के सम्मुख मीठी-मीठी स्तुतिपरक मिथ्या बातें करते हैं, वे राजा को धोखा देते हैं। इससे राजा के कार्य की हानि होती है और गुप्तचरों का नैतिक पतन होता है। वनेचर के कथन का अभिप्राय यह है कि हस्तिनापुर में दुर्योधन के विषय में जो उसने देखा है उसे वह ज्यों का त्यों युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत करेगा, चाहे वह युधिष्ठिर को अच्छा (प्रिय) लगे अथवा बुरा (अप्रिय) लगे। (१) 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः' इस सारगर्भित सक्ति में महाकवि ने सर्वभौमिक सत्य का निरूपण किया है । (३) इस सूक्ति द्वारा पूर्ववर्ती कथन का हेतुनिर्देशपूर्वक समथन होने से काव्यलिङ्ग अलंकार । (४) ततीय चरण में 'मदुक्तम् ' का अभाव होने से 'न्यूनपदता' दोष है। घण्टापथ:-क्रियास्विति । हे नृप ! क्रियासु कृत्यवस्तुषु । युक्तैः नियुक्तैः । अनुजीविभिः भृत्यैः । चारादिभिरित्यर्थः । चरन्तीति चराः । पचाद्यच् । त एव चाराः। चरेः पचाद्यजन्तापज्ञादित्वादण्प्रत्ययः स्वार्थे । त एव चक्षुर्येषां ते चारचक्षुषः 'त्वपरमण्डले कार्याकार्यावलोकने चाराश्चभ्रूषि क्षितिपतीनाम्' इति नीतिवाक्यामृते । प्रभवो निग्रहानुग्रहसमर्थाः स्वामिनो न वञ्चनीयाः न प्रतारणीयाः ! सत्यमेव वक्तव्या इत्यर्थः । चारापचारे चक्षुरपचारवद्राशा पदे पदे निपातः इति भावः। अतः अप्रतार्यत्वाद्धेतोः। असाधु अप्रियं साधु प्रियं वा। मदुक्तमिति शेषः । क्षन्तुं सोढुं अर्हसि । कुतः ? हितं पथ्यं मनोहारि प्रियं च वचो दुर्लभम् । अतो मदचोऽपि क्षन्तव्यमित्यर्थः ||४|| स किंसखा साधु न शारित योऽधिपं हितान यः संशृणुते स किंप्रभुः। सदानुकूलेपु हि कुर्वते रति नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ।।५।। ___ अ०-यः अधिपं साधु न शास्ति सः किंसखा । (एवमेव ) यः हितात् न संशृणुते सः किंप्रभुः। हि नृपेषु अमात्येषु च अनुकूलेषु (सत्सु) सर्वसम्पदः सदा रतिं कुर्वते ।
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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