SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ किरातार्जुनीयम् (भटकते रहते हैं ) जिनके अग्रभाग हरिणों (मृगों) और ब्राह्मणों (ऋषियों) के द्वारा तोड़ दिए गए हैं। सं० व्या०-अस्मिन् श्लोके युधिष्ठिरस्य दुर्दशामुक्त्वा द्रौपदी युधिष्ठिरस्य कोपोद्दीपनं कर्तुमिच्छति । हे राजन् ! पूर्वस्मिन् काले यदा भवान् गज्यसिंहासनासीनः आसीत् तदा भवतः चरणौ निरन्तरं रत्ननिमितपादपीठे विराजमानौ आस्ताम् । प्रणमतां सामन्तनृपाणां मुकुटस्थितपुष्पमालानां परागः भवञ्चरणौ अरञ्जयत् । अधुना वनवासकाले तु इतस्ततः संचरतः भवतः तो एव चरणौ हरिणतपस्विननच्छिन्नाग्रभागेषु कुशानां काननेषु तिष्ठतः । छिन्नाग्रत्वात् कुशानां स्पर्शःदुःसहः वर्तते । तत्र चरणन्यासेन महान् क्लेशः जायते। इयं भवतः दुर्दशा जातेत्यर्थः। स०-न आरतम् अनारतम् (नत्र समास)। मणीनां पीठम् इति माणपीठम् (षष्ठी तत्पु०) (अथवा मणिमयं पीठम् इति मणिपीठम्-मध्यमपदलोपी कर्मधा०), मणिपीठे शयाते इति मणिपीठशायिनौ ( उपपद समास)। राज्ञां शिरांसि इति राजशिरांसि (षष्ठी तत्पु०), राजशिरसां सनः इति राजशिरःस्त्रजः तासां राजशिरःस्रजाम् ( षष्ठी तत्पु०)। मृगाश्च द्विनाश्च इति मृगद्विजाः (द्वन्द्व), मृगद्विजैः आलूनाः इति मृगद्विजालूनाः (तृ• तत्पु०), मृगद्विजालूनाः शिखाः येषां तेषु मृग द्वजालूनशिखेषु (बहु०)। व्या०-अरब्जयत्-रञ् + णिच् + लङ, अन्यपुरुष, एकवचन । निषीदतः-नि+सद्+लट , अन्यपुरुष, द्विवचन । टि०-(१) नव युधिष्ठिर राजा थे तब उनके यहाँ सामन्त राजाओं की भीड़ लगी रहती थी। प्रतिदिन प्रणाम के लिये आने वाले राजा उनके चरणों में झुके रहते थे। राजाओं के शिरों की पुष्प-मालाओं के पराग से युधिष्ठिर के चरण रंग जाते थे। वे ही चरण आज उन कुश-समूहों में रखे जाते हैं जिनके अग्र भाग हरिणों के द्वारा खा लिए गए हैं और तपस्विजनों के द्वारा यागांदि के लिए काट लिए गए हैं। ऐसे कुश-समूहों पर पड़ने से युधिष्ठिर के चरण क्षत-विक्षत हो गए हैं। युधिष्ठिर की यह दुर्दशा द्रौपदी के हृदय को विदीर्ण कर रही है। (२) वृश्यनुप्रास ।
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy